अर्जुन और कर्ण का युद्ध
Arjuna and Karna's War
कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में जब वीर कर्ण अर्जुन के मुकाबले में लड़ रहा था, तो दोनों ओर से एक दूसरे पर घनघोर बाणों की वर्षा हो रही थी।
अर्जुन और कर्ण में कौन शक्तिशाली था ?
Who was stronger between Arjuna and Karna?
जब अर्जुन कर्ण पर बाण छोड़ता था, तब कर्ण अर्जुन का बाण लगते ही बहुत दूर पीछे हट जाता था। लेकिन जब कर्ण अर्जुन पर बाण चलाता था, तब अर्जुन का रथ केवल एक पग ही पीछे हटता था, उस पर श्री कृष्ण भगवान जो अर्जुन की रथवाही कर रहे थे, तो बोलते थे "शाबाश कर्ण शाबाश !"
तब अर्जुन को संदेह हो गया, पूछता है - भगवन ! जब मैं बाण छोड़ता हूँ तब कर्ण का रथ बहुत पीछे हटता है, उसमें आप कुछ नहीं कहते परंतु जब कर्ण बाण छोड़ता है, तो मेरा रथ केवल एक पग पीछे को हटता है, तो आप उसे शाबासी देने लग जाते हैं, इसका कारण मुझे समझा कर कहिए।
भगवान बोले "ऐ अर्जुन ! तेरे रथ पर एक तो मैं बैठा हुआ हूँ और दूसरे तेरे रथ की ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान हैं इस भाँति तेरे रथ पर दो अवतारों की शक्तियों का भार मौजूद है, फिर ऐसी दशा में भी जब तेरे रथ को कर्ण हिला देता है तो तुम स्वयं ही समझ लो कि उसके अंदर कितनी शक्ति है।"
श्री भगवान के ऐसे वचन सुनकर अर्जुन का संदेह दूर हुआ और चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा।
प्रसंग चल रहा है कि अर्जुन और कर्ण युद्ध में एक दूसरे पर बाणों की वर्षा कर रहे हैं लेकिन -
होता है वही, जो मंजूरे खुदा होता है ।
बिगड़ी भी बन जाती है, जब फजले खुदा होता है।।
अर्जुन ने कर्ण का वध कैसे किया ?
How did Arjuna kill Karna?
चूँकि अर्जुन के रथी भगवान थे, इसलिए जीत अर्जुन की ही होती है। किसी कवि का कथन है कि जब अर्जुन के हाथों वीर कर्ण, बाणों की ताव न सहकर घायल होकर अपने रथ से गिर पड़ा, तो उस समय श्री कृष्ण महाराज जी से ना रह गया, शीघ्र बोल उठे - "ऐ अर्जुन ! आज केवल एक कर्ण ही नहीं बल्कि इसके साथ लाखों घर और भी उजड़ गए।"
कर्ण को दानवीर क्यों कहा जाता है ?
Why is Karna called Danveer?
यह कथा इस प्रकार है -
जब कर्ण महारथी अर्जुन ने,
यूँ रण के बीच पछाड़ दिए।
तब श्री कृष्ण जी बोल उठे,
लाखों घर आज उजाड़ दिए।।
यह बात सुनी जब अर्जुन ने,
अपने दिल में हैरान हुआ।
हे तात ! कर्ण के मरने से,
लाखों का क्या नुकसान हुआ?
सुन सखा जगत में कर्ण एक,
यह दानी इक लासानी था।
बेशुमार खलकत को इससे ,
मिलता दाना पानी था ।।
गर यकीन ना हो तुमको मेरा,
तो चलकर कर लो जाँच अभी।
जाहिर तुम पर हो जायेगा,
यह मेरा झूठ और साँच सभी ।।
तब श्री भगवान और भक्त अर्जुन, दोनों साधु के रूप में जहां कर्ण युद्ध - भूमि में घायल पड़ा था, गये और जाकर भिक्षा माँगी।
" ऐ वीर कर्ण ! हम दोनों साधू भूखे हैं। तेरा नाम तथा शोभा सुनकर द्वार पर आए हैं। हमको भोजन चाहिये।"
तब कर्ण बोला - महाराज !
रण - भूमि में क्या है मेरे पास।
घर पर मेरे जाइए पूर्ण हो जाए आस ।।
तब साधु रूप भगवान कहते हैं -
मैं जा नहीं सकता, मेरा बूढ़ा शरीर है।
आने में यहां तक ही, होने लगी पीर है।।
साधू हूँ मत समझ, कोई ठगिया फकीर है।
मेरी नजर में दौलत -ओ दुनिया हक़ीर है।।
दानवीर कर्ण का अंतिम दान क्या था ?
What was the last donation of Danveer Karna?
साधु रूप भगवान बोले - मैं तो कहीं जा नहीं सकता क्योंकि बूढ़ा आदमी हूं यहां तक आने में ही शरीर में पीड़ा होने लगी है । ऐ राजा कर्ण मैं कोई ठगिया फकीर नहीं हूं, जो किसी बहाने आपसे दौलत मांगने आया हूं । मेरी दृष्टि में यह दुनिया तथा दुनिया की दौलत खाक के बराबर है। मुझे तो केवल भोजन चाहिए। यदि दे सकते हो, तो भूख मिटाने के लिए इस वक्त जो कुछ तुम्हारे पास है दे दो; अगर नहीं दे सकते तो इंकार कर दो। इसके सिवा और कुछ जानता नहीं ।
भला आगे से इंकार कौन करे जिसकी दान देने की आदत हो और जिस के द्वार से आज तक कोई खाली न गया हो तथा जिसने तन, मन, धन से दूसरों की सेवा करना अपना धर्म समझ रखा हो व सेवा करना जिसका हर बन चुका हो वह भला इन्कार कैसे करें और कष्ट के समय भी अपना धर्म क्यों छोड़े ?
साधु की बात सुनकर कर्ण का मुखमंडल कुछ देर के लिए कुम्हला गया, सोचने लगा अब क्या किया जाए ? इतने में उसे एक बात याद आ गई जिससे मुरझाए हुए चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। विनयपूर्वक बोला ! ऐ महात्मन ! मेरे दाँतों में सोने की कील जड़ी हुई हैं। कृपा करके मेरे दाँतो को तोड़ लो और कीलें निकाल कर अपने काम में लाओ।"
महात्मा बोले - हम किसी के दाँत तोड़ने नहीं आये। यदि आपके पास कुछ नहीं है, तो साफ कह दो कि मैं कुछ नहीं दे सकता ताकि हम चले जायें।
तब वीर कर्ण ने स्वयं ही बड़ी कठिनाई से एक पत्थर प्राप्त किया और उससे अपने दांतो को तोड़कर महात्माओं के आगे रख दिया।
महत्मा बोले "ऐ वीर कर्ण ! ये दाँत तेरे लहू से भरे हुए हैं । यदि देने की सलाह है, तो इनको धोकर कर दो। हम लहू से भरे दाँतों को हाथ नहीं लगाते।"
तब कर्ण ने जो रणभूमि में घायल पड़ा हुआ अंतिम सांस गिन रहा था; बड़ी मुश्किल से अपने हाथों की सहायता से अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर धरती पर छोड़ा, जिससे धरती से जल की धारा बह निकली। कर्ण ने दाँतों को धोकर महात्माओं के हवाले कर दिया। इतने में दोनों साधू आँखों से ओझल हो गये।
इस प्रसंग से पता चलता है कि दानवीर कर्ण कितना महान शक्तिशाली था, वह कौरवों के पक्ष में वीर अर्जुन के साथ लड़ रहा था। इसके अतिरिक्त भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य आदि जैसे धनुर्धारी शूरवीर योद्धा भी कौरवों के पक्ष में थे और कौरवों की सेना भी पांडवों की सेना से कहीं अधिक थी परंतु जीत फिर भी अर्जुन की हुई। कौरव हार गए ऐसा क्यों हुआ ? स्पष्ट है कि अर्जुन की रथवाही करने वाले स्वयं भगवान थे तथा कौरव अपनी रहनुमाई अपने आप कर रहे थे।
वह अपनी बुद्धि - बल के आसरे चल रहे थे और अर्जुन भगवान के भरोसे लड़ रहा था। यदि अर्जुन भी अपनी बुद्धि बल के आसरे चलता तो कर्ण जैसे वीरों पर विजय प्राप्त करना अर्जुन के बस की बात नहीं थी। अर्जुन तो केवल निमित्त मात्र था । करने कराने वाले मालिक आप थे।
भक्ति का धन गुरु के पास है, मन के पास नहीं । गुरु भक्ति के दाता हैं परंतु देते उसको हैं जो पीछे - पीछे चलता है तथा उनकी आज्ञा मानता है। भक्ति जब भी आएगी, गुरु का हुक्म मानने से आएगी।मन के पीछे - पीछे चलने से तो भक्ति नहीं बन सकती। लेकिन इस भेद को समझने वाले व्यक्ति संसार में बहुत कम मिलते हैं। साधारण लोग तो देखा - देखी भेड़ चाल चलते हुए एक दूसरे के पीछे - पीछे जा रहे हैं।
जग की भेड़ा चाल, चलते के पाछे चलें ,
परमारथ ना संभाल, देखो जग की मूढ़ता ।
।इति शुभम भवतु।
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