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श्री सनकादि मुनि सनक - सनन्दन - सनातन और सनत्कुमार। Sanak - Sanandan - Sanatan And Sanatkumar Shri Sankadi Muni Story In Hindi.

sankadi muni


श्री सनकादि मुनि।
Sanat Kumara Story In Hindi 


गुण , ज्ञान एवं विवेक संपन्न महान पुरुष जिस मार्ग पर चलें वही श्रेष्ठ मार्ग जीव के लिए अनुकरणीय और कल्याणकारी होता है। हमारे सद्ग्रन्थों में अनेक ऋषि , मुनि , संत , सत्पुरुष और भक्तों के जीवन प्रसंग तथा कथाएँ भरी हुई हैं जिनसे हमें सत् मार्ग का उपदेश और विवेक प्राप्त होता है। 

इस प्रसंग में हम ऐसे ही गुण , ज्ञान एवं विवेक सम्पन्न मनीषी सत्पुरुषों , संतों और भक्तों के जीवन प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं जिनका अध्ययन करके जिज्ञासु पाठक सत्य व धर्म की शिक्षा प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। 

जग के कल्याण के लिए भक्ति ही श्रेष्ठ साधन 
Devotion is the best means for the welfare of the world


पौराणिक कथाओं में श्री सनकादि मुनियों के अनेक प्रसंग आते हैं।  लोकपितामह ब्रह्मा जी ने आदिकाल में सृष्टि रचना और संवर्धन की इच्छा से चिरकाल तक तप किया।  उस तप के प्रभाव से उन्होंने बहुत से मानस पुत्रों की उत्पत्ति की। ब्रह्मा जी के तप से संतुष्ट होकर चार मानस पुत्रों के रूप में श्री भगवान ने स्वयं अवतार ग्रहण किया। 

ब्रह्मा जी के चारों  मानस पुत्र
Four Kumaras In Hindi  


जिनके नाम हुए - श्री सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार। ब्रह्मा जी ने इनके प्रकट होते ही इन्हे सृष्टि संवर्धन का आदेश दिया।  महान विरक्त परम ज्ञानी चारों कुमारो ने कहा - पिताश्री ! हमारे मन में किंचित मात्र भी वासना नहीं है।  वासना के बिना यह कार्य संभव नहीं होगा।  हम तो अंतर एवं बाह्य दोनों प्रकार की माया से दूर रहेंगे।  हम सदैव स्वछंद , उदासीन और विरक्त रहकर भजन और भक्ति करेंगे। 

ये महामनीषी महामुनि वास्तव में जग जीवों को सत्संग के द्वारा ज्ञान , विवेक और वैराग्य की  शिक्षा देकर भक्ति पंथ को निरंतर जारी कर देना चाहते थे। अतः उन्होंने कहा कि सदैव विरक्त रहने का ही हमारा दृढ निश्चय है।  

यह कह कर वे तपलोक में हरि शरणम् मन्त्र का जप करते हुए विचरण करने लगे तथा सत्यनिष्ठा से नाम जप के प्रभाव से आप चारों मुनियों ने अपनी इच्छानुसार पाँच वर्ष की  बाल्य अवस्था को चिर - स्थिर कर लिया ताकि माया ममता लेशमात्र भी कभी मन में प्रवेश न कर सके। 

भक्ति कथा प्रारम्भ 
Devotional Story Begins


श्री भगवान ने सन्यासी रूप में हंसावतार लेकर आपको ब्रह्मज्ञान की दीक्षा दी और वेदशास्त्रों में पारंगत कर सभी देवों और ब्रह्म ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ व सर्वपूज्य बना दिया।  इस प्रकार महान तपोनिधि , दिव्य शक्ति संपन्न ,प्रथम आदि सन्यासी आप चारों महामुनि लोक लोकांतर में लोक कल्याण हेतु स्वछंद विचरण करने लगे।  

आगे गुरु परम्परा को जारी रखते हुए नारद जी ने श्री सनकादि से ज्ञानदीक्षा ग्रहण की। प्राणिमात्र के शुभ आकांक्षी श्री सनकादि मुनियों के चरण कमलों में कोटि - कोटि प्रणाम है जिन्होंने कर्मबद्ध जीवों के उद्धार हेतु जगत में भक्ति परम्परा को प्रकट किया। 

श्रीमद्भागवत पुराण के आरम्भ में प्रसंग है कि जब द्वापर युग का अंत और कलयुग का आरम्भ होने को आया तब देवऋषि नारद जी ने श्री सनकादि मुनियों के चरण कमलों में पहुँच कर प्रसन्न मन से इस प्रकार विनय की कि - प्रभो ! मैँ आपकी आज्ञानुसार भक्ति यज्ञ का आयोजन करना चाहता हूँ। आप लोक वेदादि के सभी धर्म तथ्यों के ज्ञाता हैं। कृपया मेरा मार्ग दर्शन करें।  

यह सुनकर महान मनीषि श्री सनकादि मुनियों ने कथन किया - हे नारद जी , आप दयालु हृदय हैं। करुणावश आपने जीवों के उद्धार के लिए यह शुभ संकल्प किया आपसे यह भक्ति यज्ञ अवश्य ही सम्पन्न करायेंगें। हरिद्वार गंगातट आनन्दघाट  पर श्रीमद्भागवत कथा के वर्णन और मनन से यह यज्ञ अवश्य ही पूरा होगा  और प्रभु भक्ति का सहज ही प्रचार प्रसार होगा। 

इस पर देवऋषि नारद जी ने सभी लोकों  में सभी ऋषि मुनियों , साधु सन्यासियों और भगवद्भक्तों को सूचित कर  दिया। यह पावन सूचना तीनों लोकों में और चारों दिशाओं में तुरंत फ़ैल गई और देखते ही देखते वहाँ पर लाखों ऋषि , मुनि , साधु , भक्त , राजा व प्रजा उपस्थित होने लगी।  बहुत ही भव्य सम्मेलन था। 

श्री सनकादि चारों मुनि सूर्य की आभा लिए सर्वपूज्य उच्च  सिंहासन पर विराजमान हुए। प्रसन्न मन से भक्ति यज्ञ  में कथा आरम्भ होने वाली थी कि उसी समय  एक भद्र महिला अपने  अचेत अवस्था में दो पुत्रों को लेकर वहाँ उपस्थित  हो गई और  विलाप करने लगी। 

सनक - सनन्दन - सनातन  और सनत्कुमार 
Sanak - Sanandan - Sanatan And Sanatkumar


परमज्ञानी करुणाशील नारद जी ने मधुर शब्दों में उसे सांत्वना देते हुए पूछा - देवी आप कौन हैं और किस कष्ट से आप विलाप कर रही हैं ? उत्तर में उस देवी ने कहना आरम्भ किया - मुनिवर , यह सब कलियुग का प्रभाव है।  मै भक्ति की देवी हूँ , ज्ञान और वैराग्य ये मेरे दो पुत्र हैं जो इस कलियुग का आगमन सुनकर अचेत हो गए हैं। कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करें , मुझे क्या करना चाहिए ? 

देवी भक्ति के करुणा और विनय भरे शब्द सुनकर श्री सनकादि मुनिजनों ने कथन किया - हे भक्ति देवी , अब तुम चिंतित न हो। जो कथा यज्ञ यहाँ आरम्भ हो रहा है , इसमें भक्ति का ही निरूपण होगा।  भगवन्नाम के कीर्तन और सत्संग वचनों से अनेकों जीव भक्ति पथ का अनुसरण करेंगे।  

कलियुग का प्रभाव सब तरफ होगा , परन्तु भगवद्भक्तों पर इसका वार नहीं चलेगा। अतः तुम इन भक्तों के हृदय में निवास करना।  सब संतों व मुनिजनों के सत्संग द्वारा भक्ति का प्रचार-प्रसार कलयुग में होता रहेगा।  संतों और भगवद्भक्तों की भक्ति के प्रभाव से तुम और तुम्हारे दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य सबल और पुष्ट रहेंगे। इस प्रकार महान ज्ञानी विरक्त मुनियों के द्वारा कलयुग के आरम्भ में यह भक्ति यज्ञ सम्पन्न होने लगा। 

मुनिजनों के यह वचन श्रवण कर भक्ति देवी हरि नाम संकीर्तन करने लगी।  सभी भक्त , मुनि तथा संत नाम संकीर्तन में मग्न हो गए। सत्संग कीर्तन के प्रभाव से ज्ञान और वैराग्य दोनों भक्ति के पुत्र भी सचेष्ट और पुष्ट हो गए। 

पावन गंगा तट पर प्रभु गुणगान और नाम संकीर्तन होने लगा। इस भक्तिपूर्वक नाम संकीर्तन के प्रभाव से स्वयं भगवान वहाँ प्रकट हो गए। महामुनि नारद जी ने भगवान की स्तुति की और भक्तों पर सदैव कृपा बनाये रखने की विनती की।  इस पर श्री भगवान बोले -

नाहं  वसामि   बैकुंठे ,      योगिनां हृदये न च। 
मद्भक्ता यत्र गायन्ति , तत्र तिष्ठामि नारदः।।

श्री भगवान ने अपने विरद की उद्घोषणा करते हुए कथन किया - हे नारद जी ! वास्तव में न तो मैं बैकुंठ में रहता हूँ और न ही योगियों के हृदय में निवास करता हूँ।  यह निश्चय जानो कि जहाँ मेरे भक्त प्रेमीजन मेरा गुणगान करते हैं और नाम संकीर्तन करते हैं , मैं वहीँ निवास करता हूँ। 

जिस स्थान पर सत्य और असत्य का निर्णय किया जाता है , प्रभु के गुण और कथाओं का व्याख्यान होता है और नाम सुमिरण व संकीर्तन होता है , वह सत्संग है। सृष्टि रचना में नाम और भक्ति ही सत्य है , शेष सब मिथ्या प्रपंच है। 

अतः निश्चय ही भगवद्भक्ति , भगवन्नाम और भगवद्भक्त ये जगत के उद्धारक और पतितपावन होते हैं।  इन में स्वयं भगवान विद्यमान होते हैं।  जहाँ सच्चिदानन्द भगवान होते हैं , वहाँ सर्वकल्याण है, मंगल है और आनन्द है -

हरिपूजापरा     यत्र   महान      शुद्धबुद्धयः। 
तदैव सकलं भद्रं यथा निम्ने जलं द्विज।।

संत सत्पुरुष सदैव मानवता का कल्याण चाहते हैं और मानवता को सुख शांति का मार्ग दर्शाते हैं।  मानव यदि अपने धर्म का पालन करे तो उसे सुख और शांति का अनुभव होता है।  यदि अधर्म पर चले तो स्वयं के लिए और दूसरों के लिए दुःख एवं कष्ट देने वाला बन जाता है। 

सभी धर्मग्रंथों में  मनुष्य को सदुपदेश देने के लिए परोपकारी महान पुरुषों के जीवन प्रसंग और कथाएं भरी हुई हैं। उनके पठन - पाठन और श्रवण - मनन से मनुष्य को अपने धर्म का पालन करने की प्रेरणा मिलती है।  इन प्रसंगों से हमें सत् और असत् का बोध प्राप्त होता है। 

प्रभु की भक्ति मानव का सर्वश्रेष्ठ धर्म है , यह सभी सद्ग्रन्थों व संतों का मत है।  युगजीवी होने से वे युग -युग में भक्ति के प्रचार हेतू स्थान - स्थान पर विचरण भी करते हैं और तत्कालीन युगपुरुषों से मिलकर उनसे सत्संग वार्ता करते हैं। उनके ऐसे अनेक प्रसंग ज्ञान व विवेक से भरे हुए पौराणिक ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। 

त्रेतायुग में सनकादि मुनियों का मिलान मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से हुआ।  श्री रामचरितमानस में इस मिलन का एक बड़ा ही सुन्दर प्रसंग है जो भगवद्भक्तों के लिए आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।  इस प्रसंग में जनसामान्य के लिए भी बहुत बड़ी शिक्षा दी गई है।  भगवान ने अपने भ्राता भरत जी को संतों के लक्षणों और गुणों का विशद वर्णन किया है। 

श्री सनकादि मुनि और श्री राम मिलन 

।। चौपाई ।।

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। 

संग परम प्रिय पवनकुमारा।। 

सुन्दर उपबन देखन गए। 

सब तरु कुसुमित पल्लव नए।। 

जानि समय सनकादिक आए। 

तेज पुंज गन सील सुहाए ।।

ब्रह्मानंद सदा लयलीना। 

देखत बालक बहुकालीना।। 


।। दोहा ।। 

देखि राम मुनि आवत , हरषि दंडवत कीन्ह। 

स्वागत पूँछि पीट पैट , प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।। 

(उत्तरकांड)

sankadi muni

भगवान श्री राम जी का ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों से मिलन 
सनक - सनन्दन - सनातन  और सनत्कुमार 
Sanak - Sanandan - Sanatan And Sanatkumar

भगवान श्री राम जी का लंका विजय के पश्चात् अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ।  अयोध्या में रामराज्य कायम हुआ और अति उत्तम राज्य व्यवस्था का संचालन होने लगा। एक दिन प्रभु अपने सभी भ्राताओं सहित नगर के बाहर उपवन में सैर करने पहुँचे जहाँ सब पेड़ - पौधे नई हरियाली से भरपूर थे। साथ में प्रभु के परमप्रिय पवनसुत हुनमान जी भी थे। 

एकांत समय का अति उत्तम अवसर जानकर महान मुनि सनकादि ब्रह्मलोक से प्रभु से मिलने वहाँ  पहुँचे।  ये चारों महामुनि - श्री सनक जी , श्री सनातन जी , श्री सनन्दन जी और श्री सनत्कुमार जी अति शीलवन्त , गुणागार तथा ब्रह्मानंद में रहने वाले महान तपस्वी हैं। ये दूर से आते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे , मानो चारों वेद साकार तेजपुँज रूप में आ रहे हों। चारों मुनिकुमार बहुयुगी होने पर भी माया के भेद से परे , समदर्शी बालरूप में सुशोभित थे। 

श्री भगवान राम जी मर्यादापुरुषोत्तम थे।  भगवान ने सुन्दर मर्यादा का आदर्श स्थापित किया। सुप्रसिद्ध संत मुनियों को आते देख उन्होंने हर्षित होकर उन्हें दंडवत वंदना की।  हनुमान जी सहित चारों भ्राताओं ने भी दंडवत वंदना की। भगवान राम जी ने उनसे कुशल पूछते उनका स्वागत किया। 

नगर से बाहर होने के कारण वे तत्काल सिंहासन आदि की व्यवस्था नहीं कर सकते थे। अतः उनके स्वागत में भगवान ने अपना पीतपट (पीताम्बर) बिछा दिया।  चारों मुनिजन प्रेमविभोर सजलनयन श्री प्रभु के दर्शन करने लगे। यह दिव्यात्माओं का मिलन था। 

इस प्रभु मिलन में मुनियों की प्रेमदशा देखकर स्वयं श्री प्रभु भी प्रेममग्न होने लगे। दिव्यात्माओं के इस आत्मीय मिलन का आनन्द वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता। सर्वदा ब्रह्मलोक में निवास करने वाले ब्रह्मनिष्ठ महान तपोनिधि महामुनि भगवान की मर्यादा और वचन अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। स्वयं त्रिलोकीनाथ होने पर भी उन्होंने सत्संगति , संत दर्शन और उनकी महिमा को अपने वचनों से जगत में प्रकार प्रकट किया -

।। चौपाई ।।

कर गह मुनिवर बैठारे। 

परम मनोहर वचन उचारे।। 

आज धन्य मैं सुनहु मुनीसा। 

तुम्हरे दरस जाहिं अघ खीसा।। 

बड़े भाग पाइब सत्संगा। 

बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।। 

भगवान श्री राम जी ने मुनिजनों के बैठ जाने पर बहुत ही मनोहर वचन उच्चारण किये - हे मुनिश्वरों , सुनो ! आज मैं धन्य हो गया।  आपके दर्शन से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से ऐसा सत्संग मिलता है।  ऐसे सत्संग से बिना प्रयास के ही भव का बंधन कट जाता है। संगति का प्रभाव जग विदित है -

संतसंग अपबर्ग कर , कामी भव कर पंथ। 

कहहिं संत कबि कोबिद , श्रुति  पुराण सद्ग्रन्थ। 

अर्थात संत - संग मोक्षदायी और कामनायुक्त संसारी संग भवसागर में डुबोने वाला होता है।  यह सब ज्ञानी , कवि , वेद , शास्त्र  और पुराण आदि सद्ग्रन्थ कथन करते हैं। 

भगवान की यह वाणी सुनकर चारों महाज्ञानी महामुनि परमानंद , करुणानिधान , मनोकामना पूर्ण करने वाले श्री भगवान की बार - बार स्तुति करते हैं।  श्री भगवान से दुर्लभ अनपायिनी प्रेम - भक्ति का वरदान मांगकर ब्रह्मलोक पधार जाते हैं। 

।। दोहा ।।

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम। 

प्रेम भगति अनपायिनी देहु हमहि श्रीराम।। 

उक्त प्रसंग में अनपायिनी भक्ति की माँग श्री प्रभु से की गयी है।  यह बहुत ऊँची माँग है क्योंकि बहुत ऊँची भक्ति का वर माँगा गया है। अनपायिनी भक्ति का अर्थ है - अपने इष्ट के श्री चरणों में ऐसा प्रेम जो निरन्तर बढ़ता रहे , जिसका कभी ह्रास न हो। वास्तव में ऐसा प्रेम उसी भक्त के हृदय  प्रकट होता है जो पूर्णतः निष्काम हो।  न तो मन में कोई सांसारिक सुख - समृद्धि की कामना हो और न ही पारलौकिक सुख - समृद्धि की कामना हो और सुख - दुःख , हानि - लाभ आदि में सम हो।  अनेक कष्ट और विपत्तियां आ जाने पर भी जो अपने इष्ट के प्रेम में निमग्न रहें। 


इस प्रकार जियें जैसा कि आपको कल ही मरना है ,

और ज्ञान अर्जित इस प्रकार करें जैसा कि आपको सदा जीना है। 

" Live as if you were to die tomorrow.

Learn as if you were to live forever. "


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