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मनुष्य शरीर की नश्वरता।

manush tan,


बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेणवैराग्यम्

राजा दशरथ के दरबार में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी और महामुनि विश्वामित्र जी तथा अनेक देवर्षिराजर्षि  तपस्वी साधु अपने-अपने आसन पर विराजित हैं। श्री राम जी सर्वज्ञ होकर भी गुरुजनों के सम्मुख एक जिज्ञासु और मुमुक्षु बन कर उपस्थित हुए हैं। गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने जब राम जी से कहा कि तुम अपनी उपरामता से उत्पन्न चित्त की खिन्न अवस्था का विस्तार से वर्णन करो। तब मोहिनीमूर्ति कमलनयन श्री रामजी हाथ जोड़ कर अति विनम्र और मधुर वाणी में बोले देहनैराश्य वर्णन

मलाढ्यविषयव्यूह भाण्डोपस्कर संकटम्। अज्ञानक्षारवलितंनेष्टं देहगृहम्॥

अर्थ-हे मुनेयह देहरूपी गृह दोषपूर्ण विषयसमूह रूपी बर्तनों और अन्यान्य सामग्रियों से ठसाठस भरा हुआ है और अज्ञानरूपी क्षार से जर्जर हैऐसा यह शरीर हमारा अपना कैसे हो सकता है? 

श्रीरामजी बोले-हे मुनीश्वर! यह अपावन शरीरजो जगत में उत्पन्न हुआ है बड़ा विकारवान्माँस मज्जा से पूर्ण और दुख का हेतु है। इसके द्वारा भोगों से कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता इसलिये इस शोकरूप शरीर की भोग हेतु इच्छा करना महान अज्ञानता है। यह शरीर तो  जड़ है और  चैतन्य है। जैसे अग्नि के संयोग से लोहा अग्निवत् हो जाता हैवह अन्य पदार्थ को जलाता है परन्तु आप नहीं जलतावैसे ही यह देह  जड़ है  चैतन्य है। जड़ इस कारण नहीं है कि इससे कार्य का संपादन भी होता है और चैतन्य इस कारण नहीं कि इसको अपने आप कुछ ज्ञान नहीं होता। इसलिये यह शरीर मध्यमभाव में हैक्योंकि चैतन्य आत्मा इस में व्याप रहा हैपर आप तो अपवित्ररूप अस्थिमाँसरुधिरमूत्र और विष्ठा से पूर्ण और विकारवान है। ऐसी देह दुख का स्थान है। यह जीव इष्ट के पाने से हर्षवान् और अनिष्ट के पाने से शोकवान् होता है।

हे मुनीश्वर! ऐसे अमंगलरूपी शरीर में ही अहंपन फुरता है जो जन्म मरण के दुख का कारण है। जैसे कोठरी में बैठा हुआ बिलाव नाना प्रकार के शब्द करता है वैसे ही अहंकाररूपी बिलाव देह में बैठा हुआ अहं करता है चुप कदाचित् नहीं रहता। जैसे जय के निमित्त ढोल का शब्द सुन्दर लगता है वैसे ही अहंकार से रहित जो पद है वही शोभनीय है और सब व्यर्थ हैं।

हे मुनीश्वरशरीररूपी नौका भोगरूपी रेत में पड़ी हैइसलिये इसका पार होना कठिन है। जब वैराग्यरूपी जल बढ़े और प्रवाह हो और अभ्यासरूपी पतवार का बल लगे तब संसार के पार रूपी किनारे पर पहुंचा जा सकता है। फिर यदि शरीररूपी बेड़ा है तो संसाररूपी समुद्र और तृष्णारूपी जल में पड़ा है जिसका बहुत बड़ा प्रवाह है। इस जल प्रवाह में भोगरूपी मगर हैं सो शरीररूपी बेड़े को पार नहीं लगने देते। जब शरीररूपी बेड़े को वैराग्यरूपी वायु और अभ्यासरूपी पतवार का बल मिले तभी यह शरीररूपी बेड़ा पार हो।

हे मुनीश्वरजिस पुरुष ने उपाय करके ऐसे बेड़े को संसार समुद्र से पार किया है वही सुखी हुआ है और जिसने ऐसा नहीं किया वह परम आपदा को प्राप्त होता है वह उस बेड़े से उलटा डूबेगा क्योंकि उस शरीर रूपी बेड़े का तृष्णा रूपी छिद्र है। उससे संसार समुद्र में डूब जाता है और भोग रूपी मगर इसको खा लेता है। यही बड़ा आश्चर्य है कि देह अपने आप कुछ नहीं और मनुष्य मूर्खता करके अपने आपको देह मानता है फिर तृष्णारूपी छिद्र करके दुख पाता है।

यह शरीररूपी वृक्ष है उसमें भुजारूपी शाखाउँगली पत्रजंघा स्तम्भमाँसरूपी अन्दर भोगवासना उसकी जड़ और सुख-दुख इसके फल हैं। तृष्णारूपी घुन उस शरीररूपी वृक्ष को खाता रहता है। जब उसमें श्वेत फूल लगे तो नाश का समय आता है अर्थात् मृत्यु के निकट होता है। जैसे वृक्ष से जल चिकटा निकलता है वैसे ही जल शरीर के द्वारा निकलता रहता है। इसमें तृष्णारूपी विष से पूर्ण सर्पिणी रहती है जो कामना के लिये इस वृक्ष का आश्रय लेता है तो तृष्णारूपी सर्पिणी उसको डसती है और उस विष से वह मर जाता है।

हे मुनीश्वरऐसे अमंगलरूपी शरीर वृक्ष की इच्छा अज्ञानी जीव ही करता है। जब यह पुरुष अपने परिवार अर्थात् देहइन्द्रियाँप्राणमनबुद्धि और इनमें जो अहंभाव है इसका त्याग करे तब मुक्ति हो अन्यथा मुक्ति नहीं होती।

हे मुनीश्वरजो श्रेष्ठ पुरुष हैं वे पवित्र स्थान में ही रहते हैंअपवित्र में नहीं रहते। वह अपवित्र स्थान यह देह है और इसमें रहनेवाला जीव भी अपवित्र है। इस अपवित्र स्थान अर्थात् शरीर में तो अहंकाररूपी श्वपच रहता हैतृष्णारूपी श्वपचिनी और कामक्रोधमोह और लोभ इसके परिवार हैं। इससे निर्लिप्त और मुक्त होने में ही भलाई है।

हे मुनीश्वरऐसे शरीर में सदा कलह बनी रहती है और इसके बंधन में पड़े होने के कारण ज्ञानरूपी सम्पदा हृदय में प्रवेश नहीं कर पाती। शरीररूपी इस कलुषित गृह में तृष्णारूपी चण्डी स्त्री रहती हैवह इन्द्रियरूपी द्वार से देखती रहती है ऐसी कलपना प्रविष्ट कराती है कि शम दमादि दैवी सम्पदा निकट नहीं  पातीं। इस शरीररूपी घर में तो एक शैय्या अवश्य सुखदायी है जिसका नाम सुषुप्ति है परंतु इस पर शयन करने के लिए शम दमादि सम्पदा और दैवी सद्गुणों की भी आवश्यकता है इनके अभाव में जीव जब उस सुषुप्ति रूपी शैय्या पर विश्राम करने लगता है तब कामक्रोधमदलोभादि विकारों का परिवार विघ्न खड़ा कर देता है।

हे मुनीश्वरऐसे कलह-कलपना से भरे हुए शरीर के बंधन से मैं छूटना चाहता हूँइससे छूटने का उपाय कहिए ताकि परमशान्ति और जीवन्मुक्ति की उपलब्धि हो। 

(शब्द वैराग वाणी-संत चरणदास जी)

वा दिन की सुधि राखसोई दिन आवै है। जब यमदूत बुलावन आवैचल चल चल कहैं भारी।

एक घरी कोई रख  सकैगोप्यारे हूं तें प्यारी॥ बिछुरे मात पिता सुत बांधवबिछुरै कामिनि कंत।

 जो बिछुरै तो बहुरि  मिलिहैंजो युग जाहिं अनंत॥

राम संगाती नेक  बिछुरैताहि संभारत नाहीं। अपनी काया सोऊ  अपनीसमुझि देखु मन माहीं॥

चरणदास शुकदेव चितावैछाँडो जग उरझेरा। अमर नगर पहचान सिदौसीजित कर निश्चल डेरा॥

भावार्थ-सन्त चरणदास जी उपदेश करते हैं कि  भोले मनुष्यप्रभु का सुमिरण भजन कर ले क्योंकि जीवन का अंत समय निकट  रहा है। ये रिश्ते नाते साथ  दे सकेंगे। यहाँ तक कि अपनी काया भी साथ  देगी। आगे तो प्रभु राम ही अपना साथ देंगेउनकी भक्ति करके जो उन्हें अपना बना लेगा वही यम के कष्टों से बच सकेगा।


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