Ticker

6/recent/ticker-posts

About

ज्ञान प्राप्ति मानव का स्वाभाविक गुण है। प्रकृति की ओर से यह गुण केवल मनुष्य को ही प्रदान किया गया है। वह ज्ञान कैसा? कहां से प्राप्त हो? इस गूढ रहस्य को प्रत्येक प्राणी नहीं समझ सकता। कोई विरला भाग्यवान् इस वास्तविक ज्ञान अर्थात् आत्मिक कल्याण की ओर उन्मुख होता है। सन्त महापुरूष अपनी वाणियों  द्वारा जीव को जागरूक करते हैं तथा उस वास्तविक ज्ञान का प्रकाश देते हैं, जो सत्यं, शिवं तथा सुन्दरं है अथवा जिसे आत्म-ज्ञान, आत्म-कल्याण कहते हैं।

भूली भटकी हुई मानवता को सन्मार्ग दर्शाने के लिये इस ब्लॉग की रचना की गयी है। हमारे सद्शास्त्रों एवं धर्म ग्रन्थों में जो महापुरूषों की वाणियां दी गई हैं वह किस ओर इशारा कर रही हैं, मनुष्य जीवन का क्या उद्देश्य है, हम अपने मानुष तन से वह लाभ ले रहे है जिसके लिये हमको यह तन प्राप्त हुआ है। अथवा जिस कार्य विशेष के लिये उसका संसार में आना हुआ है, वह कार्य इस जीवन में हो भी रहा या नहीं? इस सब विषयों की ओर पाठकगणों का ध्यान खींचने की इस ब्लॉग में कोशिश की गयी है। जिससे मनुष्य जीवन प्राप्त करने का उद्देश्य पूरा हो सके। 

मनुष्य संसार में रहते हुए साधारण तौर पर इस बात से अनजान रहता है कि वह क्या है? और उसका संसार में आना किस कारण से हुआ है? तथा यह अनमोल शरीर उसे क्यों मिला है? 

यह मनुष्य शरीर अति उत्तम देही है। यह एक ऐसी अनमोल वस्तु है जिसका मूल्य रत्नों और मणियों से भी अधिक है। परन्तु मनुष्य अपने इस शरीर का और अपने समय का मूल्य स्वयं नहीं जानता है।

माया और शरीर के सेवन में तथा स्वार्थपरता में लगकर यह मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को बिल्कुल भूल चुका है। इसका सब समय शरीर और इन्द्रियों के सेवन में ही व्यतीत हो रहा है और यह इस शरीर सम्बन्धी व्यवहार में इस कदर अपने आप को विलीन कर चुका है कि इससे और अधिक कुछ भी उसके ध्यान में नहीं आता।

मनुष्य जीवन के समस्त पुरूषार्थ और दौड-धूप पर एक दृष्टि डाली जाये तो जो कुछ उसका रात-दिन का कार्यक्रम है, वह सब क्या है ? शरीर के सुख, शरीर के आराम और शरीर के सेवन में दिन रात उलझा हुआ है। यदि कुटुम्ब परिवार का मोह है तो वह भी शरीर ही का नाता है। धन प्राप्ति की इच्छा है तो वह भी शरीर ही के हेतू है और इसके अतिरिक्त जो भी उद्यम और पुरूषार्थ इस मनुष्य के द्वारा होता या जो हो रहा है, वह सब शरीर के निमित्त ही है।

तो क्या मनुष्य संसार में यही कुछ करने के लिये आया था? क्या जीवन का लक्ष्य और ध्येय केवल शरीर ही का सेवन मात्र है? इसे  विचार करने की आवश्यकता है।

मान लो कि इच्छानुसार शरीर के भोग भी मिल जावें, धन पदार्थ और कुटुम्ब परिवार का सुख भी प्राप्त हो जावे और शरीर की मान व प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो जाये, परन्तु अन्त में इन सबका परिणाम क्या होगा?

यही कि शरीर मिट्टी में मिल जायेगा और जीवन की समस्त कार्यवाही भी मिट्टी में मिल जायेगी।

तो फिर मनुष्य की विशेषता क्या हुई? शरीर के भोग तथा शारीरिक आवश्यकताएं तो अन्य योनियां भी पूरी कर रही हैं, यह कौन सी बडी बात हुई? अन्य योनियों को भी जब भूख-प्यास सताती है तो वे भी दौड-धूप कर किसी न किसी प्रकार अपनी भूख-प्यास की तृप्ति का साधन प्राप्त कर ही लेते हैं। यदि मनुष्य भी उसी प्रकार शरीर और इन्द्रियों के सेवनार्थ ही दौड धूप करता रहा तब तो इसका जीवन भी अन्य योनियों के  ही समान हुआ।

यदि कोई लाखों की जायदाद भी बना लेवे और अनेकों सम्बन्धी भी मिल जायें, तब भी क्या हुआ? इससे पहले भी तो अनेकों जन्मों में यह जीव इस प्रकार के अनेकों सगे सम्बन्धियों को छोडकर आया है। ऐसे पदार्थ और ऐसे सम्बन्ध तो अनेकों बार मिल कर बिछुड गये, इस जन्म में भी उनकी प्राप्ति करके मनुष्य ने कौन सा बडा कार्य कर लिया? सहजोबाई जी के वचन हैं :-

बार बार नाते मिलैं,             लख चौरासी माहिं।

सहजो सतगुरू ना मिलैं, पकड निकासैं बाहिं।।

(सन्त सहजोबाई जी)

सोचना चाहिये  कि मनुष्य वास्तव में क्या है और क्या बन बैठा है? इस की तो उसे खबर तक नहीं। यह तो वास्तव में कुल मालिक का अंश है और इसी मानुष शरीर के द्वारा उसी मालिक से मिलकर मालिक का स्वरूप बन सकता है। परन्तु यह स्वयं को शरीर मानता है। शरीर तो मिट्टी का पुतला है। यदि मनुष्य अपने को शरीर समझता और मानता है, तब तो मिट्टी की परख और समझ रखता है।

महापुरूष भूले हुए जीव को जगाते और चिताते हैं। वे बतलाते हैं कि तू तो स्वयं सब प्रकार की शक्तियों और सब प्रकार के सुखों का भण्डार है। खेद है कि सुखों का भण्डार होकर भी तू दिन-रात दुखों और कल्पनाओं में व्यतीत कर रहा है।

तू क्यों नहीं अपने वास्तविक स्वरूप की परख करता और अपने को पहचानता? तू जो कि एक पाक साफ रूह है, अपने आप को देख और समझ।

परन्तु यह मनुष्य शरीर के अन्दर इस कदर उलझ चुका है कि इसे रूह अर्थात् आत्मा का ध्यान तक नहीं आता, जो कि इसका वास्तविक स्वरूप है।

जिस प्रकार अपने ही नेत्रों से अपना मुख दिखाई नहीं पडता और यदि अपना मुख देखना हो तो दर्पण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अपनी आत्मा का निज स्वरूप देखने के लिये आत्मिक दर्पण की आवश्यकता है।

अब यदि कोई तुम से कहे कि तुम्हारे मुँह पर दाग-धब्बे हैं। तो तुम स्वयं तो अपने मुख के दाग-धब्बे नहीं देख सकते। तब तुम तत्काल दर्पण की खोज करोगे, यह निश्चय करने के लिये कि मेरे मुख पर वास्तव में दाग-धब्बे हैं या नहीं। यदि हैं तो जब तक तुम उन्हें दूर न कर लोगे, तुम्हें चैन आराम नहीं आयेगा क्योंकि तुम्हें सदैव यह ध्यान बना रहेगा कि यदि मेरे चेहरे से दाग और धब्बे दूर न हुए तो प्रतिष्ठित पुरूषों की सभा में बैठने योग्य नहीं रहूंगा। तब तुम कितनी चिन्ता में पड जाते हो और कितना शीघ्र उनके दूर करने के उपाय में लग जाते हो? परन्तु कब, जब कि पहले तुम्हें दर्पण में अपना मुख देख लेने से दाग और धब्बे होने का निश्चय हो जाता है।

इसी प्रकार ही तुम जो कि वास्तव में आत्मा या रूह हो और तुम्हारी रूह पर माया की मलिनता के अनेकों दाग और धब्बे पड चुके हैं, जो कि तुम्हें स्वयं दिखाई नहीं दे सकते। इसके लिये आत्मिक दर्पण में ही अपने स्वरूप को देखो।

आत्मिक दर्पण क्या है? सन्त सद्गुरू का सत्संग, उनके वचन और उनका ध्यान। उनके सत्संग और ध्यान में ही तुमको रूह की मलिनता का ज्ञान होगा और यहीं से उस के दूर करने का उपाय भी हाथ आयेगा।

।। दोहा।।

साध संग में चांदना, सकल अंधेरा और।

सहजो दुर्लभ पाइये,   सत्संगत में ठौर।।

(सन्त सहजोबाई जी)

सन्त सद्गुरू के सत्संग में आकर तुम प्रकाश में आ जाते हो, तुम्हें अपनी आत्मा का स्वरूप स्पष्ट देखने को मिलता है और तभी तुम अपने आप को जान सकते हो।

अब जो यह आत्मा पर मलिनता के दाग और धब्बे पड गये हैं सो इनके दूर करने का उपाय भी सोचना चाहिये।

यदि इन दाग-धब्बों को साफ करने  का उपाय है, तो वह केवल एक ही है कि सन्त सद्गुरू के वचन और ध्यान में अपना स्वरूप देखो। सन्त सद्गुरू तुम्हारे लिये आत्मिक दर्पण के सदृश हैं। उनके स्वरूप को पहचानो कि वह तुम्हारी आत्मा के निज स्वरूप हैं।

।। दोहा ।।

अलख पुरूष की आरसी,      सन्तन ही की देह।

लखा जो चाहे अलख को, इन ही में लखि लेह।।

मुझे आशा है कि पाठकगण् इस विषय को पढकर गहनता से विचार कर अपने अनमोल मनुष्य जीवन को सफल बनायेंगे, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है।