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श्रीराम जी द्वारा विभीषण सुग्रीव आदि को विदा करना। Shree Ram Chandra Ji Dwara Vibhishan Sugriv Aadi Ko Vida Karna.

shri ram chandra ji


विभीषण सुग्रीव आदि को विदा करना

विभीषण, सुग्रीव, अंगद, नल-नील, जाम्बवन्त आदि मुख्य मुख्य प्रेमी जो श्री भगवान के साथ ही पुष्पक विमान पर अयोध्यापुरी में आये हुए थे, राजतिलक हो जाने के पश्चात् उन को उन के घरों में वापस भेजने की मौज हुई। तब सबको बुलाकर श्री भगवान वचन करने लगे। परन्तु वे प्रेमी दर्शन के आनन्द में ऐसे मग्न थे, जिनको अपने घर भी भूले हुए थे। 

।। दोहा ।।

परमानन्द मगन कपि, सब कहँ प्रभु पद प्रीति।

जात जानेउ दिवस निशि, गये मास षट बीति ।। 

।। चौपाई ।। 

बिसरे गृह सपनेउ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह सन्त मन माहीं॥

तब रघुपति सब सखा बुलाये। आय सबहिं सादर शिर नाये।।

प्रेम समेत निकट बैठारे। भक्त सुखद मृदु वचन उचारे।।

तुम अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि विधि करौं बड़ाई।।

ताते मोहि तुम अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे।।

अनुज राज सम्पति वैदेही। देह गेह परिवार सनेही।

सब मोहिं प्रिय नहिं तमहिं समाना। मृषा कहौं मोर यह बाना।।

सब कहँ प्रिय सेवक यह नीति। मोरे अधिक दास पर प्रीति

।। दोहा ।।

अब गृह जाहु सखा सब, भजेहु मोहि दृढ़ नेम।

सदा सर्वगत सहित, जानि करेहु अति प्रेम  

सब प्रेमी परम आनन्द में मग्न हैं, सब को प्रभु के चरणों में प्रीति है। अयोध्या में रहते हुए : मास बीत गए हैं, दिन का पता है रात का ज्ञान है अर्थात् दिन रात बीतते हुए जान नहीं पड़ते, परन्तु घर जाने को जी नहीं चाहता। अपने अपने घर जाने की सुधि स्वप्न में भी नहीं रही, भाव कि अपने घर सबको ऐसे भूल गए थे जैसे सन्तों के मन में पराया द्रोह नहीं रहता। तब श्रीराम जी ने अपने इन सब सखाओं को बुलाया, सब ने आकर श्री भगवान के चरणों में आदर सहित सिर निवाया। भगवान ने सब को प्रेम सहित अपने समीप बैठा कर भक्तों को सुख देने वाले प्रभु ने ये कोमल वचन कहे मैं आपकी बड़ाई किस मुख से करूँ, तुम मुझे अति प्रिय हो क्योंकि तुम सब ने बहुत ही सेवा की है। मेरे निमित्त आपने अपना घर और घर के समस्त सुख त्याग दिये और सेवा में दिन रात एक कर दिये। मैं सत्य कहता हूँ आपके समान मुझे लक्ष्मण, सीता जी, राज्य सम्पत्ति, शरीर, घर, कुटुम्ब आदि कोई भी प्यारा नहीं है। यह मेरा स्वभाव है, मेरी वाणी मिथ्या नहीं। नीति यह कहती है कि सेवक सबको प्यारे होते हैं, परन्तु मेरी तो दास पर अधिक ही प्रीति है।

सेवक या दास तन, मन, धन अर्पण करके सेवा भी करता है और चाहता भी कुछ नहीं, यह उसकी निशानी होती है। यही कारण है कि वह मालिक की प्रसन्नता और प्रीति का पात्र बन जाता है।

 श्री भगवान बोले-अब मेरी यह इच्छा है कि तुम सब सखा अपने अपने घरों को जाओ और घर जाकर दृढ़ नियम से मेरा भजन करना तथा मुझ को सर्वव्यापक, सर्व हितकारी जानकर अत्यन्त प्रेम करते रहना।

।। चौपाई ।। 

 सुनि प्रभु वचन मगन सब भये। को हम कहाँ बिसरि तनु गये।

इक टक रहे जोरि कर आगे। कहि सकत कछु अति अनुरागे॥

परम प्रीति तिन्ह करि प्रभु देखी। कहा विविध विधि ज्ञान बिसेखी॥

प्रभु सम्मुख कछु कहै पारहिं। पुनि पुनि चरण सरोज निहारहिं॥

तब प्रभु भूषण बसन मँगाये। नाना रंग अनूप सुहाये।

सुग्रीवहि प्रथमहि पहिराये। भरत वसन निज हाथ बनाये।

प्रभु प्रेरित लक्ष्मण पहिराये। लंकापति रघुपति मन भाये॥

अंगद बैठि रहे नहिं डोले। प्रीति जानि प्रभु ताहि बोले॥

।। दोहा ।।

 जाम्बवंत नीलादि सब, पहिराये रघुनाथ।  

हिय धरि रामस्वरूप सब, चले नाई पद माथ॥

 प्रभु श्री राम जी के वचन सुन कर सब चुप हो गये, उदासीनता की कोई सीमा रही। यह भी नहीं जानते कि हम कौन हैं और कहाँ हैं। हाथ जोड़ कर एकटक आगे खड़े रह गये, शरीर की सुधि भूल गई और अधिक प्रेम होने के कारण कुछ कह नहीं सकते। भगवान ने उन की अति प्रीति देखकर अनेक प्रकार से समझाया, परन्तु वे प्रेमी अपने प्रभु के सन्मुख तथा उनकी मौज देखकर कुछ कह भी नहीं पाते। बार बार उनके चरणों को देखते हैं।

तब श्री भगवान ने भूषण और वस्त्र मंगवाये जो अनेक रंग के बहुत ही सुन्दर और सुहावने थे। सब से पहले भरत जी ने सुग्रीव जी को अपने हाथों से चुन कर वस्त्र पहराये और लक्ष्मण जी ने अपने भगवान की आज्ञा से विभीषण को पहनाये। अंगद जी चुप थे और चुप करके एक कोने में पीछे को हट कर बैठे रहे और भगवान भी उसकी अधिक प्रीति जानकर कुछ नहीं बोले। तत्पश्चात् जाम्बवन्त, नल-नील आदि सब प्रेमियों को श्री रघुनाथ जी ने अपने कर कमलों से वस्त्र पहनाये। तब सब अपने इष्टदेव श्री राम जी का स्वरूप हृदय में धारण कर और उनके चरणों में मस्तक निवाय आज्ञा पाकर चले। फिर अंगद जी विनय करने लगे। 

।। चौपाई ।। 

सुनु सर्वज्ञ कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बन्धो॥

मरती बार नाथ मोहि बाली। गयो तुम्हारे पगतर घाली॥

अशरण शरण विरद सँभारी। मोहि जनि तजहु भक्त भयभारी॥

मोरे प्रभु तुम गुरु पितु माता। जाऊँ कहाँ तजि पद जलजाता।।

तुमहि विचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।

बालक अबुध ज्ञान बल हीना। राखहु शरण जानि जन दीना।

नीच टहल गृह की सब करिहउँ। पद पंकज विलोकि भव तरिहउँ।

अस कहि चरण परेउ प्रभु पाहीं। अब जनि नाथ कहहु गृह जाहीं।। 

।। दोहा ।। 

अंगद वचन विनीत सुनि, रघुपति करुणासींव

प्रभ उठाय उर लायउ, सजल नयन राजीव।। 

तब अंगद जी ने उठ कर श्री चरणों में सिर निवाया और नेत्रों में जल भर हाथ जोड़ कर नम्र वचन से ऐसे बोले, मानो प्रेम के रस में बोर दिये हैं। अंगद जी विनय करते हैं - मेरे दाता सर्वज्ञ प्रभु! आप कृपा और सुख के सागर हो, दीनों पर दया करने वाले तथा दीनजनों के सहायक हो। हे नाथ! मेरा पिता बालि मरते समय मुझ को आप जी की गोद में डाल गया था। आप अशरण को शरण देने वाले हो, विरद सम्भार रीति के पालनहारे तथा भक्तों के भय को दूर करने वाले हो। दास की यही विनय है कि मुझ को अपने चरणों से दूर करो। हे प्रभु! मेरे आप ही गुरु, पिता, माता सब कुछ हो। नेत्रों से जल बरसाते हुए अंगद जी कहते हैं -हे नाथ! मैं आपके चरणकमलों को छोड़कर कहाँ जाऊँ? मेरा आपके बिना कोई नहीं है। हे मेरे स्वामी! में बालक ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन हूँ। मेरे प्रभु! इस दीन दास को अपनी शरण में ही रखिए। में घर की नीच से नीच टहल करूंगा ओर चरण कमलों के दर्शन करके भवसागर से पार होऊँगा। ऐसा कहते हुए अंगद जी प्रभु के चरणों पर गिरकर बोले-हे मेरे भगवान् ! अब मुझे घर जाने को कहिये। इस प्रकार अंगद के नम्र वचन सुनकर करुणानिधान श्री राम जी ने अपने भुजबल से उन्हें उठा कर अपने हृदय से लगाया और कमल समान नेत्रों में जल भर आया। 

।। दोहा ।।

निज उर माला वसन मणि, बालि तनय पहिराइ।

विदा किये भगवान तब, बहु प्रकार समुझाइ।

मालिक की मौज बड़ी प्रबल होती है। उस में कई भेद छिपे रहते हैं और उन भेदों को मालिक आप ही जानते हैं, बेचारे जीव सत्पुरुषों की मौज को क्या समझ सकते हैं। अगर अंगद जी की प्रीति और भावना को देखा जाए तो उसे किसी हालत में भी घर वापस भेजना नहीं बनता। परन्तु भगवान फिर भी उसे भेजते हैं। इस मौज में एक भेद यह भी मालूम होता है कि जब श्री भगवान ने सुग्रीव के साथ मित्रता बांध कर बालि को मारा था तो बालि ने मरते समय अंगद की बाँह श्री भगवान के हाथ में दी थी। बालि का शरीर छूट गया और सुग्रीव ने भगवान की आज्ञा से अपने बड़े भाई बालि का विधिपूर्वक मृतक कर्म किया, फिर लक्ष्मण जी को समझा कर नगर में भेजा कि तुम सब पुरवासियों को बुलवाकर उनके सामने सुग्रीव को किष्किन्धा नगरी का राजतिलक करो और अंगद को युवराज बना आओ। यथा

।। दोहा ।।

लक्ष्मण तुरत बुलायउ, पुर जन विप्र समाज।

राज्य दीन्ह सुग्रीव कहँ, अंगद कहँ युवराज।।

लक्ष्मण जी ने नगर में जाकर तुरन्त पुरवासियों और ब्राह्मणों का समाज बुलाकर श्री राम जी के समझाये अनुसार सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दे दिया।

महापुरुषों अवतारों के सदा तुले हुए वचन होते हैं, वे कभी टल नहीं सकते अर्थात् पूरे होकर रहते हैं। क्योंकि भगवान अंगद को युवराज पद देने का वचन कर चुके हुए हैं और उन वचनों ने पूरा होकर रहना है। 

रघुकुल रीति सदा चली आई।

प्राण जायें पर वचन जाई।। 

अंगद जी की प्रीति और घर जाने की दृढ भावना को देखते हुए भी भगवान अपनी मौज से काम लेते हैं। अपने गले की मणियों की माला और वस्त्र अंगद जी को पहनाकर तथा बहुत प्रकार समझाकर विदा करते हैं। 

।। चौपाई ।। 

भरत अनुज सौमित्रि समेता। पठवन चले भक्त कृत चेता॥

अंगद हृदय प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितवत प्रभ की ओरा।।

बार बार करि दंड प्रणामा। मन अस रहन कहहिं मोहिं रामा।।

राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि शोचत हसि मिलनी।।

प्रभु रुख देखि विनय बहु भाखी। चलेउ हृदय पद पंकज राखी।

अति आदर सब कपि पहुँचाये। भाइन सहित भरत फिरि आये।

तब सुग्रीव चरण गहि नाना। भाँति विनय कीन्हीं हनुमाना॥

दिन दश करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरण देखिहौं देवा॥

पुण्य पुँज तुम पवन कुमारा। सेवहु जाइ कृपा-आगारा॥

अस कहि कपिपति चले तुरन्ता। अंगद कहेउ सुनहु हनुमन्ता।।

।। दोहा ।।

 कहेउ दण्डवत प्रभु सन, तुमहिं कहौं कर जोरि।

बार बार रघुनायकहिं, सुरत करायउ मोरि॥

अस कहि चलेउ बालि सुत, फिरि आयेउ हनुमन्त।

तासु प्रीति प्रभु सन कही, मगन भये भगवंत॥

कुलिशहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।

चित खगेश अस रामकर, समुझि परै कहु काहि।। 

भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण सहित भक्त वत्सल भगवान अंगद जी को भेजने के लिये सिंहासन से उठकर कुछ आगे को चले। अंगद जी का हृदय प्रेम से भरा हुआ है। वे बार बार अपने प्रभु की ओर देखते हैं, फिर फिर उनके चरणों को दण्डवत् प्रणाम करते हैं और साथ ही मन में ऐसा आता है कि प्रभु श्री राम जी मुझे रहने को कहें।

एक प्रेमी भक्त अपने इष्टदेव से आज्ञा पाकर वापस घर जा रहा है। उसे घर पहुँच कर भी उसी आदर्श को दृष्टिगोचर रख कर जीवन व्यतीत करना है जिस दृश्य को वह आज्ञा पाते समय देखकर आया है। इसलिये श्री राम जी का देखना, बोल चाल, हँस कर मिलना-स्मरण कर अंगद जी हृदय में सँभालकर रख रहे हैं। क्योंकि यह ध्यान का सामान है जिसके आधार पर भक्त का भक्तिमय जीवन बनता है। अपने प्रभु की ओर बार बार देख बहुत विनीत वचन कहकर श्री राम जी के चरण-कमल हृदय में रखकर अंगद जी चले। बड़े आदर से उन सब प्रेमियों को कुछ दूर पहुँचा कर भाइयों सहित भरत जी लौट आये। तब सुग्रीव जी के चरण छूकर हनुमान जी ने अनेक प्रकार से विनय की-हे देव! मैं कुछ दिन श्री रघुनाथ जी के चरण कमलों की सेवा करके तब फिर आपके चरणों के दर्शन करूँगा। सुग्रीव जी बोले-हे पवन कुमार! तुम अति भाग्यशाली हो और बड़े पुण्य आत्मा हो जो आप को सेवा का अवसर मिल रहा है। जाकर कृपा के सागर श्री राम जी की सेवा का लाभ प्राप्त करो। ऐसा कहकर सुग्रीव आदि सब प्रेमी तुरन्त चल दिये परन्तु अंगद जी ने जाते समय हनुमान जी को फिर कहा कि प्रभु के चरणों में मेरा दण्डवत् करना और आप से हाथ जोड़ कर विनय करता हूँ कि बार बार श्री रघुनाथ जी को मेरी याद कराते रहना। ऐसा कहकर अंगद जी चले और हनुमान जी लौट आये। अंगद जी की प्रीति प्रभु से कही, सुनकर भगवान अति प्रसन्न हुये। काकभुशुण्डि जी कहते हैं-हे गरुड़ जी! अगर कोमल कहिये तो श्री भगवान का चित्त फूल से भी कोमल है लेकिन अगर कठोर कहिये तो उनका चित्त वज्र से भी कठोर है। ऐसे भगवान के चित्त की गति को कौन जान सकता है। 

अंगद जी की भक्ति भी संसार में एक आदर्श है जो भक्ति मार्ग से भूले भटके जीवों को मार्ग पर लाने के लिये रोशनी की मीनार है।

 

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