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परम भक्त माधव दास जी का प्रसंग आपने सुना नहीं होगा? You may not have heard about the supreme devotee Madhav Das Ji?

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परम भक्त माधव दास जी

Madhav Das Kaun the

सन्त सद्गुरूदेव विश्व में प्रकट होकर यह ब्रह्ममयी दृष्टि मानव मात्र को दिया चाहते हैं। ’तेन त्यक्तेन भुन्जीथाः’ ऐ मानव! तू त्याग की पवित्र वृत्ति को धारण करके संसार में जीवन निर्वाह कर। सर्वदा ही चित्त में यह भावना होनी चाहिये कि यह जो कुछ भी है उस मेरे विश्वपिता का है। वही सब को जितना, जैसा और जब देना चाहता है दे रहा है। संसार  के सब जीव-जन्तु उसी के तो हैं-उन में क्या वह प्रभु नहीं विराज रहे ? भक्त के हृदय में सदा यही इच्छा रहती है कि पहले संसार की क्षुधा-तृषा मिट जाय-हम पीछे चिन्ता कर लेंगे। यह है ’’जीने दो और जियो।’’

परम भक्त माधव दास जी का प्रसंग आता है आप तीव्र वैराग्य धारण करके नीलगिरि के समुद्र तट पर जाकर पड़ गये और श्री जगन्नाथ जी भगवान् के ध्यान में विलीन हो गये। उनको तीन दिन तक अपनी कोई सुध-बुध न रही। भूख की पीड़ा का उन्हें भान तक भी न हुआ। तब चिन्ता हुई भगवान को-उन्होंने लक्ष्मी जी के द्वारा अपने श्री भोग प्रसाद में से कुछ पदार्थ उनके पास भिजवा दिये। सोने के थाल में प्रसाद लेकर जब लक्ष्मी जी वहां पहुंची तब वे ध्यान मग्न बैठे थे। ध्यान टूटने पर अपने सामने प्रसाद को पडा हुआ देखा-श्री प्रभु-कृपा समझकर प्रसाद खाया और थाल वहीं छोड दिया।

प्रातःकाल हुआ-श्री जगन्नाथ भगवान् जी के मन्दिर में आरति का समय हो गया-पुजारियों ने देखा कि वहां थाल ही नहीं है। दौड़ धूप की-माधव दास जी के पास थाल पड़ा देखकर पुजारियों ने उन्हें चोर बना दिया और लगे उन की निर्दयता से पिटाई करने। उन्हें क्या पता कि वह भगवान् के इतने प्यारे हैं कि सारी मार प्रभु स्वयं अपने ऊपर ले रहे हैं जब प्रभात में भगवान के श्रीविग्रह पर बेंतों की मार के निशान देखे तो वे बडे तिलमिलाये। इस पर भगवान स्वयं बोले कि वह स्वर्ण का थाल मैंने ही उनको दिया था। वे तो उसे लेना भी नहीं चाहते थे। पुजारियों ने माधव दास जी के चरण पकड़ लिये और उनसे अपने अपराध की क्षमा याचना की।

एक मनुष्य वे भी हैं-जो अपने जीने की तो तनिक भी चिन्ता नहीं करते। उन्हें अपने इष्टदेव के सच्चे घने प्यार के सागर में डूबे रहना प्रिय लगता है। ऐसे भक्तों के शरीर क्या पांच तत्वों से नहीं बने होते ? उन्हें सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास, कष्ट-क्लेश और निन्दा स्तुति से पाला क्या नहीं पडता ? सब कुछ होता है-वे इसी धरातल पर ही विचरण करते हैं, मृत्युलोक के प्राणियों के बीच में उन्हें रहना होता है परन्तु जैसे कछुआ अपने सारे अंगों को समेट कर पत्थर सी कठोर अपनी पीठ के नीचे छुपा लेता है वैसे ही ऐसे प्रभु के प्रिय जन अन्तःकरण की सम्पूर्ण वृत्तियों को अपने इष्टदेव को अर्पित करके परम शान्ति का आनन्द लेते हैं। 

जो संस्कारी आत्माएं केवल परमार्थ परायण होती हैं-जिन्हें परमेश्वर के प्यार के बिना और कुछ सुहाता ही नहीं उनसे भगवान् भी सीधी और स्पष्ट बातें कर लिया करते हैं।

एक बार माधव दास जी अतिसार के रोग से घिर गये-बहुत ही कष्ट उन्हें हो रहा था-भगवान् अपने भक्त को व्यथित देखकर बोले भक्तों के लिये मैं सदैव बेचैन रहता हूँ। माधव दास जी ने सहज स्वभाव से कहा कि प्रभो! आप मेरी यह पीडा दूर ही कर दीजिये।

प्रभु ने उत्तर दिया कि यदि तुम्हारे इस कर्मभोग के भोगने से पूर्व ही तुम्हारी पीड़ा दूर हो जाय तो दूसरे भोगों को भोगने के लिये तुम्हें और जन्म धारण करना ही पडे़गा। यदि मैं ऐसा कर दूँ तो मुझे अपने ईश्वरत्व से विमुख होना पड़ता है। दूसरा कारण यह है कि भक्त की दुर्दशा देखकर मुझे बड़ा कष्ट होता है और मैं उसके कष्ट को बड़े कौशल से सहला दिया करता हूँ। भक्त की तो मैं ढाल होता हूँ-कामदेव के पैने शरों का सामना करने के लिये मैं उस का कवच बन जाता हूँ। 

भक्तों का जीवन संसार की मोह-माया में उलझे हुए लोगों के जीवन से विपरीत होता है। संसारी पुरूष पहले अपने सुख की चिन्ता करता है फिर यदि हो सका तो दूसरे के दुःख को भी दूर करने के लिये पग बढ़ायेगा। उसकी मान्यता ही यही है कि ’जियो और जीने दो’-अथवा कभी कभी यह कहता हुआ सुना जायेगा ’’तुझ को परायी क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू’’-पहले आत्मा और फिर परमात्मा-आदि आदि। 

सच है-संसारी भी क्या करे-शैशव काल से लेकर मरण-काल तक सिवाय संसार और उसके नश्वर भोग-पदार्थों के और कुछ उसे सूझता ही नहीं। अपनी इन्द्रियों को रिझाना ही उसकी पूजा है-मन को सन्तुष्ट करना उसका हरि आराधन है और बुद्धि के द्वारा छल-छद्म, चोरी-मक्कारी, डकैती तथा धोखा-धड़ी से काम लेना उस की जीवन सफलता है। वह इस नश्वर जगत् की अटपटी उलझनों के जाल में फँसा हुआ किंकर्त्तव्य विमूढ़ सा हुआ हुआ अपने सुदुर्लभ मानुष-जन्म को निरर्थक खो बैठता है।


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