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वह सत्ता जिसे ब्रह्म कहते हैं अणु अणु में परिव्याप्त है। The entity called Brahm is in the molecule.

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वह सत्ता जिसे ब्रह्म कहते हैं अणु अणु में परिव्याप्त है।

’’तज्जलानिति शान्त उपासीत’’

उस ब्रह्म की शान्त चित्त होकर समीपता प्राप्त करो जो इस विश्व का कर्त्ता-धर्त्ता और हर्त्ता है। अयमात्मा ब्रह्मयह जीवात्मा भी तो ब्रह्म है।

’’सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञचन’’

                                                                                              उपनिषद 

’’निस्सन्देह यह जो कुछ भी दृष्यमान जगत् प्रतीत होता है यह सब ब्रह्म है। इस प्रपंच में अनेकता तो है ही नहीं।’’

ब्रह्मवेत्ता जन कैसी अद्भुत घोषणा करते हैं कि इस संसार की कोई पृथक सत्ता नहीं है-विविधता तो वस्तुतः कहीं है ही नहीं-यह जो कुछ भी है वह एक मात्र ब्रह्म है-सृष्टि का ताना और बाना ब्रह्म को ही जानो। 

स ओतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु’-

यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 8

इतना ही नहीं वेद में परमेश्वर अपने आप हमें उपदेश करते हुए समझाते हैं :-

        ब्रह्मैवेदममृतं  पुरस्ताद्  ब्रह्म  पश्चाद्

        ब्रह्म दक्षिण-तश्चत्तोरेण  अधश्चोर्घ्वं

        प्रसृतं ब्रह्मैवेदं  विश्व  मिदंवरिष्ठम् ।।

ऐ विश्व के अमृत-पुत्रों ! वह अविनाशी ब्रह्म तुम्हारे सामने है, ब्रह्म तुम्हारे पृष्ठ भाग में है-वही दाहिने  और बायें भाग में स्थित है- नीचे भी है और वह ऊपर भी है- ब्रह्म ही अपने आप में मग्न होकर यह सारा कौतुक किये जा रहा है। विश्व का यह सारा खेल उसकी अपनी ही लीला है।

इस प्रकार की परिसूक्ष्म और उच्चतम भावनाओं से भरे हुए वाक्य चारों वेदों, पुराणों, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों एवं षड्दर्शनों में यत्र-तत्र ही मिल जाते हैं। कैसे मन को हर लेती हैं ये मनीषिजनों की सूक्तियां! इन वचनों का अनुशीलन करने से ऐसा भासने लगता है कि जीवात्मा और प्रकृति का तो अस्तित्व ही नहीं। सब ब्रह्ममय विश्व जो हो गया। फिर ये जीव और प्रकृति नाम के दोनों शब्द सत्ताहीन से हो जाते हैं। अद्वैतवाद का ही सिद्धान्त सब वादों को अपने में समेट लेता है।

यह परमोत्कृष्ट और बुद्धि संगत भाव है। इस पर गम्भीर विचार करने से मनुष्य असीम आनन्दोल्लास में खो जाता है। उस के शरीर से, मन से और बुद्धि से होने वाले पाप-पुण्य दोनों ही कहीं विलीन हो जाते हैं। उसकी निर्मल आत्मा ब्रह्म कोटि में पहुंच जाती है। उसके मुख से स्वतः यह वाक्य निकल जाता है अहं ब्रह्मास्मि’-अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ। एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म-अर्थात् एक ब्रह्म ही सर्वत्र व्याप्त हो रहा है।

यहां कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि अपने को ब्रह्म कह देने में कोई दाम तो लगते नहीं जब मन की इच्छा हुई झट से कह दिया अहं ब्रह्मास्मि’-अर्थात् मैं ब्रह्म हूँं। किन्तु क्या उसके ब्रह्म कह लेने से वह ब्रह्म हो जायेगा ?

सत्य तो यह है कि अहं ब्रह्मास्मि कहना कदापि उचित नहीं है। एक अज्ञानी, अबोध, निरक्षर भट्टाचार्य, नास्तिक तथा वेद निन्दक भी बडे हर्ष से कह सकता है। अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म हूँ। एक नीचातिनीच, महाभिमानी, दुराचारी और महापातकी भी यह कह सकता है अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म हूँ-किन्तु इन सबका ऐसा कथन करना भी अपने आप में घोर पाप है। अहं ब्रह्मास्मि महावाक्य का दारूण अपमान है और यह सत्य भी है क्योंकि ब्रह्म रूप बने बिना अपने को ब्रह्म कह देना असत्य नहीं तो और क्या है ? यह मन, इन्द्रियां और बुद्धि से परे की वस्तु है। इस का अपने में अनुभव किया जाता है। वाणी की पकड से ऊपर है। शास्त्रों के अनुसार पुनः यह एक नई शंका जाग उठती है-कि जब ब्रह्म के सिवाय और कुछ है ही नहीं-तो अपने को ब्रह्म कहने का पूरा पूरा अधिकार है। 

परन्तु नहीं जगत में क्या देखते नहीं कि जिस व्यक्ति ने 18-19 वर्ष विद्याभ्यास करके डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर ली-वह निस्संकोच ही अपने नाम  के पीछे पी0एच0डी0 लिखता है। उसका ऐसा करना वैधानिक मान लिया जाता है वह यदि अपने को डॉक्टर बतलाता है तो न्याय्य है क्योंकि वह 18 वर्ष लगाकर विश्वविद्यालय की सम्पूर्ण पाठ्य-क्रम-प्रणाली में से निकला है। उसका अहम्भाव सच्चा है।


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