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Chhatrapati Shivaji Apne Gurudev Samarth Guru Ramdas Ji Par Kis Kadar Kurban The. छत्रपति शिवाजी का अपने गुरुदेव के लिये शेरनी का दूध दुह कर लाना।

Chhatrapati Shivaji Maharaj

छत्रपति शिवाजी का अपने गुरुदेव के लिये शेरनी का दूध दुह कर लाना। 


शिवाजी महाराज जी की कथा (Story of Shivaji Maharaj Ji)

परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के वचन हैं कि :-


                    ।। दोहा।। 

भक्ति प्रान तें होत , मन दे कीजै भाव। 
परमारथ परतीत में , यह तन जाव तो जाव।।
भक्ति गेंद चौगान की , भावै कोई ले जाय। 
कह कबीर कछु भेद नहि , कहा रंक कहा राय।। 


अर्थात भक्ति रूपी सत्य पदार्थ की प्राप्ति के लिये प्राणों  की बाजी लगानी पड़ती है और मन भाव यह व्यापार करना पड़ता है। परमार्थ के मार्ग में यदि अपने तन का बलिदान भी करना पड़े , तो भी सेवक को अपने इष्टदेव पर पूर्ण विश्वास रखकर आगे बढ़ते रहना चाहिये। 

चौगान एक खेल है। इस खेल में खिलाडी घोड़े पर बैठकर मैदान में पड़ी हुई गेंद को एक लम्बी छड़ी से लक्ष्य स्थान पर ले जाते हैं , इसमें धनी - निर्धन का भेद नहीं किया जाता।  महापुरुष कथन करते हैं कि चौगान की गेंद के समान भक्ति है , कोई भी व्यक्ति इसकी प्राप्ति करके लक्ष्य पर पहुँच सकता है। भक्ति मार्ग में इस बात का कोई भेद नहीं होता कि भक्ति - अभिलाषी निर्धन है अथवा धनवान। 

कहने का अभिप्राय यह कि भक्ति की अनमोल सम्पदा को वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है , जिसे इष्टदेव सन्त - सद्गुरु पर पूरा विश्वास होता है। ऐसे सेवक को यदि सद्गुरु की प्रसन्नता के लिये काल के मुख में भी जाना पड़े , तो भी वह नहीं घबराता: क्योंकि उसे इस बात पर पूर्ण विश्वास होता है कि मेरे इष्टदेव सदा मेरे अंग - संग हैं और उनका कृपापूर्ण कर - कमल परोक्षरूप से हर समय मेरी रक्षा कर रहा है। इस विषय में छत्रपति शिवाजी महाराज की कथा अत्यन्त शिक्षाप्रद एवं सराहनीय है , जो इस प्रकार है -

शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु कौन थे 

Who was the spiritual guru of Shivaji

समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी अपने समय के पूर्ण महापुरुष थे।  छत्रपति शिवाजी उनके गुरुमुख शिष्य थे और गुरुदेव के चरणों में उनकी अचल श्रद्धा , दृढ विश्वास एवं अतुलनीय अनुराग था। वे गुरुदेव की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शीश चढ़ाते थे और प्राणपन से उसे पूरा करने का प्रयत्न करते थे।  आज्ञाकारी होने के कारण गुरुदेव के वे अत्यन्त प्रियपात्र थे और गुरुदेव की उन पर विशेष कृपा थी। 

वास्तव में देखा जाय , तो इष्टदेव की प्रसन्नता का पात्र बनने में अन्य गुणों की अपेक्षा आज्ञापालन का अधिक महत्व है। भगवान्  श्री रामचन्द्र जी महाराज अयोध्यावासियों को उपदेश करते हैं कि :-

।। चौपाई।। 

सोइ सेवक प्रियतम मम सोइ। 

मम अनुसासन मानै जोई ।। 

(श्रीरामचरितमानस , उत्तरकाण्ड )

अर्थ :- "वही मेरा सेवक है और वही मेरा प्रिय है , जो मेरी आज्ञा को मानता हैं। "

शिवाजी भी गुरुदेव को इसलिये  प्रिय थे , क्योंकि वे गुरुदेव की प्रत्येक आज्ञा को सत्य - सत्य करके मानते और प्राणपन  से उसका पालन करते थे। गुरुदेव की प्रसन्नता के लिये वे प्राणो का बलिदान करने को भी तत्पर रहते थे। शिवाजी पर गुरुदेव की इतनी अधिक कृपा देखकर कई शिष्यों को अच्छा न लगता था।  उनका विचार था कि राजा होने के कारण ही शिवाजी को गुरुदेव अधिक चाहते हैं।  समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी उन शिष्यों के मनोभावों को जान गये।  उनके मन से इस भ्रम को दूर करने के लिये उन्होंने एक युक्ति सोची , ताकि सबको ज्ञात हो जाय कि  शिवाजी वास्तव में सच्चे सेवक हैं। 

एक दिन प्रातः काल जब शिवाजी अपने गुरुदेव श्री समर्थ स्वामी जी के दर्शन के लिये उनके आश्रम पर पहुँचे , तो गुरुदेव ने एक लीला के रूप में उन सभी शिष्यों , जिनके में भ्रम था , को बुलाकर वचन किये  - " आज मौसम बहुत सुहावना है , चलो सैर करने चलें। "

सभी शिष्यों को साथ लेकर श्री स्वामी जी सैर के लिये चल पड़े।  वे उस ओर निकल गये , जहाँ एक घना वन था और जिसमें  अनेकों हिंसक पशु रहते थे।  वन के निकट पहुँचकर अन्तर्यामी समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी दर्द से कराहते हुए एक शिला पर लेट गये और पेट पकड़कर बोले  - " हमारे उदर में भयानक पीड़ा हो रही है। "

यह सुनकर सभी शिष्य व्याकुल हो उठे।  शिवाजी ने विनय की - "गुरुदेव मैं अभी राजवैद्य को बुलाकर लाता हूँ। "

यह कहकर जैसे ही वह जाने के लिये मुड़े कि गुरुदेव ने उन्हें रोकते हुए कहा - " शिवा ! राजवैद्य को बुलाने से कोई लाभ न होगा।  उनकी औषधियों से यह पीड़ा ठीक होने वाली नहीं है, इस रोग की तो केवल एक ही औषधि है।  यदि वह मिल जाये , तो हमें इस रोग से तुरन्त छुटकारा मिल सकता है , परन्तु------------।"

सभी शिष्यों ने हाथ जोड़कर विनय की - "प्रभो ! आप कहते - कहते रुक क्यों गये ? आप औषधि का नाम बताने की कृपा करें , हम उसे अभी ले आते हैं। "

समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी बोले - " इस पीड़ा को शान्त करने की केवल एक ही औषधि है और वह है - शेरनी का दूध। यदि कहीं से शेरनी का दूध मिल जाय , तो हमारे रोग का तुरन्त निवारण हो सकता है। "

गुरुदेव के ये वचन सुनकर सभी शिष्य स्तब्ध रह गये , क्योंकि शेरनी का दूध लाना , मानो मृत्यु के मुख में हाथ डालने के समान था। किन्तु शिवाजी तनिक भी न घबराये।  उन्होंने गुरुदेव के चरणों में विनय की "प्रभो ! आप मुझे आशीर्वाद दें , मैं अभी शेरनी का दूध लेकर आता हूँ। "

गुरुदेव बोले - " शिवा ! शेरनी का दूध लाना बच्चों का खेल नहीं ; इसमें प्राण जाने का भय है। "

शिवाजी  ने गुरुदेव के चरणों में दृढ विश्वास रखकर विनय की - " गुरुदेव ! जब आप मेरे अंग - संग हैं और मेरे रक्षक हैं , तो फिर शेरनी तो क्या , काल भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।  प्रभो ! आप मुझे आशीर्वाद प्रदान करें , ताकि आपकी यह सेवा आपका यह दास सफलतापूर्वक कर सके। "

उनका ऐसा दृढ विश्वास देखकर समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी गद्गद हो उठे।  उन्होंने अपना कर कमल शिवाजी  के शीश पर रखते हुए वचन किये - " हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। "

गुरुदेव को प्रणाम कर शिवाजी वहाँ से चल दिये।  अन्य शिष्यों की समझ में यह बात न आयी कि शिवाजी शेरनी का दूध कहाँ से और कैसे लायेंगे ? वे उन्हें पागल और अज्ञानी समझने लगे। किन्तु अज्ञानी तो वे स्वयं थे , क्योंकि सर्व समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी , जिनकी कृपादृष्टि से सब कार्य स्वयं ही पूरे हो जाते हैं और प्रकृति की समस्त शक्तियाँ  जिनके संकेत की प्रतीक्षा में करबद्ध खड़ी रहती हैं , उनकी दिव्या शक्तियों पर उन्हें विश्वास नहीं था , अन्यथा वे ऐसा क्यों सोचते ? उनके विपरीत , शिवाजी को गुरुदेव की अतुल शक्ति पर दृढ विश्वास था। 

शिवाजी का यह दृढ निश्चय था कि गुरुदेव की छत्रच्छाया प्राप्त होने पर जबकि जीव काल से भी निर्भय हो जाता है, तो फिर शेरनी की क्या शक्ति है , जो उन्हें हानि पहुँचा सके ? इसके अतिरिक्त , उनके मन में यह भी दृढ विश्वास था कि करन - करावनहार तो गुरुदेव स्वयं हैं , यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि गुरुदेव ने मुझे सेवा का सुअवसर प्रदान किया है।  

सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी के वचन हैं कि :-


करन करावन  सभ किछु तुम ही 

तुम समरथ नाही अन होरी ।। 

तुमरी गति मिति  तुम ही जानी 

से सेवक जिन भाग मथोरी ।। 

(गुरुवाणी )

अर्थ :- " हे प्रभो ! तुम आप ही सब कुछ करने - कराने वाले हो , तुम सर्वसमर्थ हो , तुम्हारे सामान कोई दूसरा नहीं है।  तुम कैसे हो और कितने महान हो , इस भेद को तुम स्वयं ही जानते हो।  जिन मनुष्यों के मस्तक पर भाग्य विराजता है अर्थात जिनका भाग्योदय होता है , वही तुम्हारे सेवक बनते हैं। "

अतः मन में दृढ विश्वास रखकर शिवाजी सर्वप्रथम अपने महल में गये और वहाँ से एक स्वर्णपात्र लिया , क्योंकि आम तौर पर ऐसा प्रसिद्ध है कि शेरनी का दूध केवल सोने के पात्र में ही ठहरता है।  तत्पश्चात वे अश्वशाला में गये और एक तीव्रगामी घोडा लिया एवं शीघ्रता से उस पर सवार हो गये।  उनके सवार होते ही घोडा हवा से बातें करने लगा।  वन के निकट पहुँचकर शिवाजी घोड़े को रोककर नीचे उतरे और घोड़े को एक पेड़ साथ बाँध दिया , तत्पश्चात  वे स्वर्णपात्र तथा रस्सी लेकर वन की ओर चल दिये। वन में अनेकों ऐसी पहाड़ियाँ थी , जिनमें गुफायें बनी हुई थीं।  वे उन गुफाओं को देखते हुए आगे बढ़ने लगे। अन्त में उन्हें एक गुफा में दो सिंहशावक दिखाई दिये , जो आपस में खेल रहे थे। वह गुफा अन्य गुफाओं से कुछ भिन्न प्रकार की थी।  उसका द्वार ऊपर की ओर था।  शिवाजी ने नीचे झाँककर देखा , परन्तु उन्हें शेरनी कहीं दिखाई नहीं दी।  शिवाजी सोचने लगे कि शेरनी कहीं आसपास शिकार के लिये गयी होगी , वह थोड़ी देर में आ ही जायेगी , परन्तु यह गुफा तो बहुत गहरी है , इसमें कूदना तो कठिन है ही , बाहर निकलना तो लगभग असम्भव ही है। तो क्या किया जाय ? तभी उन्हें रस्सी का ध्यान आया।  उन्होंने एक पेड़ के साथ रस्सी बाँधी और गुरुदेव को स्मरण कर रस्सी के सहारे गुफा में उतर गये।  

आगन्तुक को गुफा में देखकर सिंह शावक भयभीत हो गये और चुपचाप एक कोने में दुबक गये।  शिवाजी उन्हें पुचकारने लगे। धीरे - धीरे वे उनके निकट चले गये और उनकी पीठ सहलाने लगे।  कुछ ही पल बाद सिंह शावक उनके साथ इस प्रकार खेलने लगे , मानो शिवाजी से उनकी पुरानी जान - पहचान हो। शिवाजी खेल तो सिंह शावक के साथ रहे थे , तथापि उनका ध्यान निरन्तर शेरनी की ओर ही लगा हुआ था। 

कुछ देर बाद ही उन्हें गुफा के बाहर से शेरनी की गर्जना सुनाई दी।  सिंह शावक खेलना भूलकर ऊपर गुफा के द्वार की ओर  देखने लगे और शिवाजी सावधान होकर एक कोने में खड़े हो गये।  शेरनी  ऊपर खड़ी गरजती रही , फिर मांद में कूद आयी।  दोनों शावक दौड़ते हुए उसके निकट चले गये।  मनुष्य की गन्ध पाकर शेरनी चौकन्नी हो गयी और चारों ओर  देखने लगी। तभी उसकी दृष्टि कोने में खड़े हुए शिवाजी पर पड़ी ; उनको देखकर वह गुर्राने लगी। 

अपनी मांद में दूसरे जीव को देखकर हिंसक पशु वैसे ही क्रोधित हो उठते हैं , परन्तु मांद  में जबकि बच्चे उपस्थित हों , तब तो मादा बहुत ही भयावह हो जाती है। इस बात को शिवाजी भलीभाँति जानते थे, परन्तु शेरनी की गुर्राहट सुनकर वे तनिक भी भयभीत नहीं हुए।  वे धीरे - धीरे आगे बढे और कुछ दूरी पर शेरनी के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये।  तत्पश्चात विनय करने लगे - " माता ! मेरे गुरुदेव उदर - पीड़ा से व्याकुल हैं।  उस रोग के निदान की औषधि गुरुदेव ने शेरनी का दूध बताया है। उसी की प्राप्ति के लिये मैंने तुम्हारी मांद में घुसने की धृष्टता की है। मुझे थोड़ा सा अपना दूध देने की कृपा करो।  

शेरनी कुछ देर तक उसी प्रकार गुर्राती रही और शिवाजी हाथ जोड़कर उसके सामने खड़े रहे।  शावकों ने जब देखा कि माता उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं दे रही है , तो वे भागकर शिवाजी के पास पहुँच गये और उनके साथ खेलने का प्रयत्न करने लगे।  किन्तु शिवाजी उनकी ओर ध्यान देने की अपेक्षा उसी प्रकार हाथ जोड़े शेरनी के सामने खड़े रहे।  बच्चों को शिवाजी के साथ खेलते देखकर कुछ देर बाद शेरनी शान्त हो गयी और उसने गुर्राना छोड़ दिया। यह देखकर शिवाजी का साहस बढ़ गया।  उन्होंने कुछ पल मन ही मन गुरुदेव का ध्यान किया और स्वर्णपात्र उठाकर शेरनी के निकट चले गये।  शेरनी चुपचाप खड़ी रही।  शिवाजी उसके निकट बैठ गये और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। वह भी वात्सल्य प्रकट करते हुये उनका पैर चाटने लगी।  उचित अवसर देखकर शिवाजी ने थोड़ा सा दूध दुहा और फिर खड़े होकर उसे सहलाने लगे। 

कुछ देर बाद शेरनी एक कोने में जाकर बैठ गयी और बच्चों को दूध पिलाने लगी शिवाजी रस्सी पकड़कर मांद के बाहर आ गये। उनका काम पूरा हो चुका था और होता भी क्यों नहीं ? जिसके सिर पर सृष्टि के स्वामी श्री सदगुरुदेव जी महाराज का कृपापूर्ण हाथ हो , उसके समस्त कार्य बिना किसी विघ्न - बाधा के पूर्ण हो जाते हैं। 

सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज जी के वचन हैं कि :-


सिर ऊपर ठाढा  गुरु सूरा।।

नानक ता के कारज पूरा।। 

( गुरुवाणी )

अर्थात जिस व्यक्ति के सिर पर रक्षक के रूप में शूरवीर सद्गुरु खड़े हों , उसके सारे कार्य सफल हो जाते हैं। 

जल्दी - जल्दी पग बढ़ाते हुए शिवाजी वहाँ पहुँचे , जहाँ उनका घोडा बँधा हुआ था।  उन्होंने घोडा खोला और उस पर सवार होकर कुछ ही पलों में वहाँ जा पहुँचे , जहाँ उनके गुरुदेव शिला पर विराजमान थे। 

वहाँ  पहुँचकर वे तुरन्त ही घोड़े से उतरे और गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया।  गुरुदेव ने मुस्कराते हुये कहा " शिवा ! हमारी उदर - पीड़ा तो कभी की शान्त हो चुकी , परन्तु यह बताओ ! क्या तुम शेरनी का दूध लाने में सफल हुए ? "

शिवाजी ने स्वर्णपात्र गुरुदेव के समक्ष रखते हुए विनय की - " प्रभो ! जब आपका आशीर्वाद मेरे साथ था , तो फिर सफल होने में संशय ही क्या था ? "

गुरुदेव बोले - " किन्तु यह कैसे सम्भव हुआ ? हमें सब वृतान्त सुनाओ। "

गुरुदेव की आज्ञानुसार शिवाजी ने समस्त वृतान्त अथ से इति तक कह सुनाया , जिसे सुनकर सभी शिष्यों के मन का भ्रम दूर हो गया और वे शिवाजी की गुरु - भक्ति , श्रद्धा और विश्वास की भूरि - भूरि प्रशंशा करने लगे।  गुरुदेव ने शिवाजी के शीश पर अपना वरद हस्त रखते हुए कहा - " हम तुम्हारी श्रद्धा भावना से अति प्रसन्न हैं ; तुम्हारा नाम परमार्थ जगत में सदैव अमर रहेगा। "

गुरुदेव का आशीर्वाद पाकर शिवाजी का ह्रदय आनन्द एवं उल्लास से पूर्ण हो गया। सेवक को और चाहिये ही क्या ? सद्गुरु की प्रसन्नता ही तो उसकी सच्ची पूँजी और जीवन का आधार है। जिसने सद्गुरु की प्रसन्नता प्राप्त कर ली , उसका जीवन सफल हो गया। 

हमारा भी कर्तव्य है कि इस कथा से शिक्षा ग्रहण करें और अपने इष्टदेव श्री सदगुरुदेव महाराज जी की प्रसन्नता प्राप्त करने का प्राणपन से यत्न करें।  इसी में ही जीवन की सफलता निहित है। 


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