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महामुनि वशिष्ठ जी के जीवन से जुड़े शिक्षाप्रद प्रसंग। Who was Guru vashishtha Ji ?

Mahrishi Vashishtha Ji


बुद्ध पुरुषों के जीवन प्रसंग 

ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ जी  Braham Rishi Vashishth Ji

वेद उपनिषद और पुराणों में सप्तऋषियों का वर्णन आता है।  उन सातों ऋषियों के नाम हैं - वशिष्ठ , विश्वामित्र , कण्व , भारद्वाज , अत्रि , वामदेव और शौनक। वैसे तो सातों ऋषियों को वैदिक धर्म का संरक्षक माना गया है परन्तु वशिष्ठ जी रघुकुल के कुलगुरु होने के कारण अति प्रसिद्ध हैं। इन्हे ब्रह्मा जी का मानस पुत्र कहा जाता है। आपको भगवान राम आदि चारों भ्राताओं के गुरु होने का गौरव प्राप्त हुआ है। 

पुराणों में महामुनि वशिष्ठ जी के जीवन से जुड़े अनेक शिक्षाप्रद प्रसंग हैं। हम यहाँ अपने पाठकों के लिये वशिष्ठ जी का प्रभु श्री रामजी से संवाद विषयक एक बहुत बड़ा शिक्षाप्रद प्रसंग दे रहे हैं।  वशिष्ठ - राम संवाद बहुत ही विस्तृत प्रसंग वशिष्ठ महारामायण के नाम से प्राचीन सद्ग्रन्थों में आया है जो कि ज्ञान , विवेक और वैराग्य से भरा हुआ है। यह कथा इस प्रकार है -

गुरु अगस्त्य जी व मुनि सुतीक्ष्ण संवाद -
Guru Agastya Ji and Muni Sutikshan Dialogue -

एक बार महामुनि अगस्त्य जी के शिष्य सुतीक्ष्ण जी के मन में एक संशय उत्पन्न हुआ। उसने उस संशय को निवृत्त करने के लिए गुरुदेव के आश्रम में जाकर विधिसंयुक्त प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक प्रश्न किया कि हे भगवन ! आप सर्व तथ्यों के मर्मज्ञ और सर्व शास्त्रों के ज्ञाता हो , एक संशय मुझको है , सो कृपा करके निवृत्त कीजिये।  मोक्ष का कारण कर्म है या ज्ञान अथवा दोनों ?

मोक्ष का कारण कर्म है या ज्ञान अथवा दोनों ?
Is the cause of salvation karma or knowledge or both?

इतना सुन अगस्त्य जी बोले - हे ब्राह्मण ! केवल कर्म मोक्ष का कारण  नहीं और केवल ज्ञान से भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता। कर्म करने से अंतःकरण शुद्ध होता है , मोक्ष नहीं होता और अंतःकरण की शुद्धि के बिना केवल ज्ञान से भी मुक्ति नहीं होती। कर्म व ज्ञान दोनों के द्वारा ही मोक्ष की सिद्धि होती है।  कर्म करने से अंतःकरण शुद्ध होता है , फिर ज्ञान उपजता है और तब मोक्ष होता है। जैसे दोनों पंखों से पक्षी आकाश मार्ग में सुख से उड़ता है वैसे ही कर्म और ज्ञान दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है।  यही सिद्ध मुनियों का मत रहा है। हे ब्राह्मण ! इस आशय पर एक पुरातन इतिहास है , वह तुम सुनो-

महर्षि अग्निवेष के पुत्र कारुण्य की अकर्मण्यता 
Inaction of Karunya, son of Maharishi Agnivesha

महर्षि अग्निवेष के पुत्र कारुण्य ने गुरु के आश्रम में रह कर चारों वेदों का अध्ययन किया और घर लौटा।  वेदों का अध्ययन करने पर उसके मन में एक संशय उत्पन्न हुआ जिससे उसने संध्या वंदन आदि कर्मों का त्याग कर दिया और चुप बैठ गया।  जब उसने सब कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दिया तो उसके पिता ने उससे कहा कि हे पुत्र ! तुम कर्तव्य कर्म क्यों नहीं करते ? कर्म न करने से तुम सिद्धता को कैसे प्राप्त करोगे। जिस कारण तुम कर्म से रहित हुए हो वह मुझसे कहो। 
तब कारुण्य बोला - हे पिता ! मुझको विद्या का अध्ययन करके एक संशय उत्पन्न हो गया है , इसलिए कर्म में मेरी रूचि नहीं रही। वेद में एक स्थान पर तो कहा है कि जब तक मनुष्य जीता रहे तब तक कर्म अर्थात अग्निहोत्रादिक अथवा संध्या वंदन आदि करता रहे और एक स्थान पर कहा है कि न कर्म से मोक्ष होता है और न केवल त्याग से ही मोक्ष होता है , सो आप कृपा करके मेरा संशय निवृत्त कीजिये और बतलायें कि क्या कर्तव्य है ? 

देवदूत और सुरुचि अप्सरा संवाद 
Angel and Suruchi Apsara Dialogue

अगस्त्य जी बोले - हे सुतीक्ष्ण ! जब कारुण्य ने पिता से ऐसा प्रश्न किया तब पिता अग्निवेष ने कहा कि हे पुत्र ! कर्म व ज्ञान का आशय स्पष्ट करने वाली एक पुरानी कथा है , वह मैं तुझे सुनाता हूँ। पहले वह कथा मन लगाकर सुनो और हृदय में विचार करो।  एक समय सुरुचि नामक अप्सरा हिमालय पर्वत के सुन्दर शिखर पर बैठी थी।  वहाँ गंगाजी के पवित्र जल का प्रवाह लहर ले रहा था।  अप्सरा ने देखा कि इंद्र का एक दूत अंतरिक्ष से चला आता है , जब वह निकट आया तो उससे अप्सरा ने पूछा - अहोभाग्य , देवदूत ! तुम देवगणों में श्रेष्ठ हो , कहाँ से आये हो और अब कहाँ जाओगे ? सो कृपा करके मुझसे कहो। 

राजऋषि अरिष्टनेमि का सत्व वैराग्य 
Sattva Vairagya of Raj Rishi Arishtanemi

देवदूत बोला - हे सुभद्रे ! अरिष्टनेमी नामक एक धर्मात्मा राजा ने अपने पुत्र को राज्य देकर वैराग्य लिया है और सम्पूर्ण विषयों की अभिलाषा त्याग कर गन्धमादन पर्वत पर तप करने लगा। उस राजा से मेरा एक कार्य था और उस कार्य के लिए मैं उस के पास गया था।  अप्सरा ने पूछा - हे भाग्यवान ! वह पूरा वृतान्त मुझसे कहो।  मुझको तुम अति उत्तम दिखते हो, यह जानकर पूछती हूँ।  महान पुरुषों से जो कोई प्रश्न करता है तो वे उद्वेगरहित होकर उत्तर देते हैं।  देवदूत बोला - हे भद्रे ! वह वृतान्त मैं विस्तारपूर्वक तुमसे कहता हूँ , मन लगाकर सुनो। 

जब अरिष्टनेमि राजा ने गन्धमादन पर्वत पर जो नाना प्रकार की लताओं और वृक्षों से पूर्ण है , बड़ा तप किया , तब देवताओं के राजा इन्द्र ने मुझको बुलाकर आज्ञा दी कि हे दूत ! तुम गन्धमादन पर्वत पर विमान , अप्सरा और नाना प्रकार की क्रीड़ासामग्री संग ले जाओ और राजा को विमान पर बैठाकर यहाँ ले आओ।  तब मैं विमान और सुखभोग की सामग्री लेकर राजा अरिष्टनेमि के पास गया और उनसे कहा हे राजन ! तुम्हारे लिए यह सब भोग सामग्रियों से सुसज्जित विमान ले आया हूँ।  इस पर आरूढ़ होकर तुम स्वर्ग को चलो और देवताओं के भोग भोगो।  इतना सुन राजा ने कहा कि हे दूत ! प्रथम तुम स्वर्ग के वृतान्त मुझे सुनाओ कि तुम्हारे स्वर्ग में क्या - क्या गुण हैं  और क्या - क्या दोष ?

मैंने कहा कि हे राजन ! स्वर्ग में बड़े - बड़े दिव्य भोग हैं।  स्वर्ग में सदा ही राग - रंग और बहार होती है। जरा व रोग वहाँ नहीं व्यापते।  बड़े पुण्य वाले स्वर्ग के उत्तम सुख को , मध्यम पुण्य वाले मध्यम सुख को और कनिष्ठ पुण्य वाले कनिष्ठ सुख को पाते हैं।  राजन ! मैंने जो गुण स्वर्ग में हैं वे तो तुमसे कहे , अब स्वर्ग के जो दोष हैं वे भी सुनो , हे राजन ! स्वर्ग में जो अपने से ऊँचे बैठे दिखाई देते हैं और उत्तम सुख भोगते हैं , उनको देखकर मन में क्रोध उपजता है कि ये मेरे समान क्यों बैठे हैं।  जो अपने से नीचे बैठे होते हैं उनको देखकर अभिमान उपजता है कि मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ।  इसके साथ ही स्वर्ग में एक और भी दोष है , वह यह कि जब पुण्य क्षीण हो जाते हैं तब जीव को उसी समय मृत्युलोक में गिरा दिया जाता है।  एक क्षण भी नहीं रहने दिया जाता।  यही स्वर्ग में गुण और दोष हैं। 

देवदूत ने अप्सरा से कहा कि हे भद्रे ! जब इस प्रकार मैंने राजा अरिष्टनेमि को स्वर्ग के गुण - दोष बताये तो राजा बोला कि हे देवदूत ! उस स्वर्ग में हम नहीं जाना चाहते।  जैसे सर्प अपनी त्वचा को पुरातन जानकर त्याग देता है वैसे ही हम आत्म - बोध और मोक्ष हेतु उग्र तप करके यह देह त्याग देंगे पर इस क्षणिक सुख वाले स्वर्ग में नहीं जायेंगे।  हे देवदूत ! तुम अपने विमान को जहाँ से लाये हो वहीँ ले जाओ , हमारा नमस्कार है। 

देवदूत ने कहा - हे देवि ! जब इस प्रकार राजा ने स्वर्ग जाना स्वीकार नहीं किया तब मैं विमान और सब क्रीड़ासामग्री आदि लेकर वापस स्वर्ग को गया और सम्पूर्ण वृतान्त इन्द्र से कह दिया। इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और सुन्दर वाणी से मुझसे बोले कि हे दूत ! तुम फिर राजऋषि अरिष्टनेमि के पास जाओ।  वह संसार से उपराम हुआ है।  उसको अब आत्मपद की इच्छा हुई है।  इसलिए तुम उसको अपने साथ लेकर परमज्ञानी महर्षि वाल्मीकि जी के पास , जिन्होंने आत्म - तत्व को आत्माकार जाना है , आत्म - बोध दिलाने हेतु ले जाओ।  तब मैं इन्द्र की आज्ञानुसार राजा अरिष्टनेमि को आदरपूर्वक महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम पर तदर्थ छोड़ आया हूँ। 

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