God is Omnipotent Omniscient and Omnipresent.
जीने दो और जियो
“सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञचन’’
उपनिषद
“निस्सन्देह यह जो कुछ भी दृष्यमान जगत् प्रतीत होता है यह सब ब्रह्म है। इस प्रपंच में अनेकता तो है ही नहीं।’’
ब्रह्मवेत्ता जन कैसी अद्भुत घोषणा करते हैं कि इस संसार की कोई पृथक सत्ता नहीं है-विविधता तो वस्तुतः कहीं है ही नहीं-यह जो कुछ भी है वह एक मात्र ब्रह्म है-सृष्टि का ताना और बाना ब्रह्म को ही जानो।
“स ओतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु’’-
यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 8
वह सत्ता जिसे ब्रह्म कहते हैं अणु अणु में परिव्याप्त है।
“तज्जलानिति शान्त उपासीत’’
उस ब्रह्म की शान्त चित्त होकर समीपता प्राप्त करो जो इस विश्व का कर्त्ता-धर्त्ता और हर्त्ता है। “अयमात्मा ब्रह्म” यह जीवात्मा भी तो ब्रह्म है।
God is Omnipotent Omniscient and Omnipresent.
इतना ही नहीं वेद में परमेश्वर अपने आप हमें उपदेश करते हुए समझाते हैं :-
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद्
ब्रह्म दक्षिण-तश्चत्तोरेण अधश्चोर्घ्वं
प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्व मिदंवरिष्ठम् ।।
ऐ विश्व के अमृत-पुत्रों ! वह अविनाशी ब्रह्म तुम्हारे सामने है, ब्रह्म तुम्हारे पृष्ठ भाग में है-वही दाहिने और बायें भाग में स्थित है- नीचे भी है और वह ऊपर भी है- ब्रह्म ही अपने आप में मग्न होकर यह सारा कौतुक किये जा रहा है। विश्व का यह सारा खेल उसकी अपनी ही लीला है।
इस प्रकार की परिसूक्ष्म और उच्चतम भावनाओं से भरे हुए वाक्य चारों वेदों, पुराणों, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों एवं षड्दर्शनों में यत्र-तत्र ही मिल जाते हैं। कैसे मन को हर लेती हैं ये मनीषिजनों की सूक्तियां! इन वचनों का अनुशीलन करने से ऐसा भासने लगता है कि जीवात्मा और प्रकृति का तो अस्तित्व ही नहीं। सब ब्रह्ममय विश्व जो हो गया।
फिर ये जीव और प्रकृति नाम के दोंनों शब्द सत्ताहीन से हो जाते हैं। अद्वैतवाद का ही सिद्धान्त सब वादों को अपने में समेट लेता है।
यह परमोत्कृष्ट और बुद्धि संगत भाव है। इस पर गम्भीर विचार करने से मनुष्य असीम आनन्दोल्लास में खो जाता है। उस के शरीर से, मन से और बुद्धि से होने वाले पाप-पुण्य दोनों ही कहीं विलीन हो जाते हैं। उसकी निर्मल आत्मा ब्रह्म कोटि में पहुंच जाती है। उसके मुख से स्वतः यह वाक्य निकल जाता है “अहं ब्रह्मास्मि’’-अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ। एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म-अर्थात् एक ब्रह्म ही सर्वत्र व्याप्त हो रहा है।
यहां कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि अपने को ब्रह्म कह देने में कोई दाम तो लगते नहीं जब मन की इच्छा हुई झट से कह दिया “अहं ब्रह्मास्मि’’-अर्थात् मैं ब्रह्म हूँं। किन्तु क्या उसके ब्रह्म कह लेने से वह ब्रह्म हो जायेगा ?
सत्य तो यह है कि अहं ब्रह्मास्मि कहना कदापि उचित नहीं है। एक अज्ञानी, अबोध, निरक्षर भट्टाचार्य, नास्तिक तथा वेद निन्दक भी बडे हर्ष से कह सकता है। “अहं ब्रह्मास्मि’’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ। एक नीचातिनीच, महाभिमानी, दुराचारी और महापातकी भी यह कह सकता है “अहं ब्रह्मास्मि’’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ-किन्तु इन सबका ऐसा कथन करना भी अपने आप में घोर पाप है।
अहं ब्रह्मास्मि महावाक्य का दारूण अपमान है और यह सत्य भी है क्योंकि ब्रह्म रूप बने बिना अपने को ब्रह्म कह देना असत्य नहीं तो और क्या है ? यह मन, इन्द्रियां और बुद्धि से परे की वस्तु है। इस का अपने में अनुभव किया जाता है। वाणी की पकड से ऊपर है।
शास्त्रों के अनुसार पुनः यह एक नई शंका जाग उठती है-कि जब ब्रह्म के सिवाय और कुछ है ही नहीं-तो अपने को ब्रह्म कहने का पूरा पूरा अधिकार है। परन्तु नहीं जगत में क्या देखते नहीं कि जिस व्यक्ति ने 18-19 वर्ष विद्याभ्यास करके डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर ली-वह निस्संकोच ही अपने नाम के पीछे पी0एच0डी0 लिखता है।
उसका ऐसा करना वैधानिक मान लिया जाता है वह यदि अपने को डॉक्टर बतलाता है तो न्याय्य है क्योंकि वह 18 वर्ष लगाकर विश्वविद्यालय की सम्पूर्ण पाठ्य-क्रम-प्रणाली में से निकला है। उसका अहम्भाव सच्चा है।
इसी प्रकार जिस ने योगाभ्यास के द्वारा सुरत शब्द योग की उच्चतम दशा पर अपना अधिकार कर लिया है-वह यदि आवश्यकता पडने पर अपने को “अहं ब्रह्मास्मि’’ कह कर अभिव्यक्त करता है तो उस का अहंकार त्रिकाल सत्य है। वह यदि न भी कहे तो भी उसका रोम-रोम अजपा जाप के करने में विलीन है।
सूर्य को कभी आवश्यकता नहीं होती कि वह अपने आगमन की सूचना मुख से कह कर देवे-वह यदि मेघाच्छन्न गगन में निकला है तो भी संसार जान जाता है कि यह प्रकाश सूर्य का है।
अहं ब्रह्मास्मि-जैसे अत्यन्त गोपनीय महावाक्य का पांच भूतों से और तीन गुणों से बनी हुई जिह्वा में क्या शक्ति है जो उच्चारण कर सके।यह परमोत्कृष्ट वाक्य अन्तर्मानस में स्वतः ही गूंजा करता है। श्वास श्वास में इसकी स्वर लहरी निरन्तर उठा करती है।
ऊपर लिखी पंक्तियों का जब परिमन्थन करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें अपनी जीवन धारा को तुरन्त ही बदल लेना चाहिये। इस सम्पूर्ण प्रपंच में ब्रह्म को ही देखने का अभ्यास करना चाहिये। स्थावर-जंगम जगत् ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है। अणु-अणु सच्चिदानन्दमय है।
जो कोई ऐसा मानने-जानने और स्वीकार करने में तनिक भी आनाकानी करता है तो शास्त्र का भीषण दण्ड उस के सिर पर यों आकर गर्जने लगता है- “मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति’’अर्थात् वह अज्ञानी मनुष्य महामृत्यु के हाथों से कभी भी नहीं बच सकता है जो इस संसार को उस ब्रह्म से भिन्न अनेक रूपों में विभाजित मानता है।
वह जीव एक देह से दूसरी देह में परिभ्रमण करता फिरता है जो ब्रह्म को छोडकर किसी अन्य रूप की कल्पना भी करता है। देखिये कितने कठोर दण्ड का विधान है उस जीव के लिये जो ब्रह्म भाव से पृथक् होकर कुछ भी देखता है। अब एक जिज्ञासु प्रश्न कर सकता है कि जब सब कुछ ब्रह्म ही है फिर यह सारा कर्म-चक्र कैसे कार्य करेगा ?
प्रारब्ध-संचित क्रियमाण कर्मों की सम्पूर्ण व्याख्यायें निरर्थक हो जाएंगी। जन्म-मरण का सारा झमेला खटाई में पड़ जाएगा। चौदह लोकों के धर्म-कर्म, नियम-विनियम सब समाप्त हो जायेंगे। इसका कारण यह है कि ब्रह्म को तो कुछ करना -धरना होगा नहीं क्योंकि कोई भी क्रिया करना वहां सम्भव होता है जहां किसी प्रकार की अपूर्णता दिखाई देती हो। परिपूर्ण ब्रह्म के लिये कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता ?
यह तो हम यहां ब्रह्म का चर्चा कर रहे हैं-अवतार-पुरूष भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी भी अपने विश्व-प्रसिद्ध गीतोपदेश में स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं :-
न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं, त्रिषुलोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं, वर्त्त एव च कर्मणि।।
श्रीमद्भवद्गीता अ0 3, श्लोक, 22
हे अर्जुन! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ। यह श्री कृष्ण आगे अपने ब्रह्ममय होने का प्रमाण कितनी सुन्दरता से हमें देते हैं :-
चेतसा सर्वकर्माणि, मयि संन्यस्य मत्परः ।
बु़द्धयोग मुपाश्रित्य, मच्चित्तः सततं भव ।।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ।।
गीता अ0 18 श्लोक 57-58
“ऐ अर्जुन! तू सब कर्मों को मन से मेरे अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्व बुद्धि रूप निष्काम कर्मयोग का अवलम्बन करके निरन्तर मेरे चित्त वाला हो जा’- इससे क्या होगा-
“तू मेरे में निरन्तर मन वाला हुआ हुआ मेरी कृपा से जन्म-मृत्यु आदि सब संकटों से अनायास ही तर जायेगा और यदि अहंकार के वश होकर मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायेगा अर्थात् तू परमार्थ-पथ से हाथ धो बैठेगा।’’
यह है स्वरूप एक ब्रह्मरूप पुरूष का-अपने इसी रूप की दिव्य झांकी श्री भगवान कृष्ण चन्द्र जी इस प्रकार देते हैं :-
समोअहं सर्वभूतेषु, न मे द्वेष्योअस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या, मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
गीता अ0 9 श्लोक 29
मैं सब भूतों में (स्थावर-जंगम जगत् में) समान भाव से व्यापक हूं-न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है। परन्तु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं वे मेरे में और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होता हूँ।
युग युग में अवतार-पुरूषों का आना केवल धर्म के स्वरूप को अपने जीवन से बतलाना होता है।
वे स्वयं मूर्तिमान् धर्म होते हैं। उनकी अन्तर्दृष्टि में ब्रह्म ही ब्रह्म सर्वत्र अपनी अलौकिक लीलाएं करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। वे स्वयं भी सगुण-साकार ब्रह्म ही होते हैं। उन्हें ब्रह्माण्ड की एक एक वस्तु में ब्रह्म का ही प्रत्यक्ष दर्शन हुआ करता है। तभी तो उन्हें चराचर जगत् की मर्यादाओं को विश्रंखलित होता हुआ देख कर महादुःख होता है। मानव मात्र को वे अपने पीयूषवर्षी वचनों द्वारा सन्मार्ग दर्शाते हुए कथन करते हैं :-
ईशावास्य मिदं सर्वं, यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः, मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 1
“ऐ मनुष्य! जगत् में जो कुछ भी है उस सब में वह ईश्वर अधिष्ठित है। इसलिये तू त्याग भाव से इस संसार का उपभोग कर। कभी किसी की वस्तु पर लालच भरी आँख न रखना-यह मन ही मन निश्चय कर ले कि तेरा यहां कुछ भी अपना नहीं है।’’
इस वेदमन्त्र में श्री भगवान मनुष्यों को तीन सच्ची बातें सिखलाते हैं :-
1-वह ब्रह्म ही विश्व के कण-कण में रम रहा है।
2-अतः तू संसार के समस्त पदार्थों का सेवन तो कर किन्तु उस विश्वपिता परमात्मा का ध्यान रख लेना।
3-तू संसार का दीवाना न बन क्योंकि इसने तेरा साथ निभाना नहीं है।
आज के युग में विरले ही मनुष्य ऐसे दिखाई देंगे जो इन तीन प्राणदायक कर्त्तव्यों का परिपालन करते हों। अधिकांश लोग संसार और संसार के पदार्थों के संचय करने में दिन रात निरत हैं वे इस तथ्य को भूल ही गये हैं कि हर एक वस्तु में वही ब्रह्म उस का रचयिता विद्यमान है। प्रत्येक प्राणी में भी वही ब्रह्म स्थित है। ऐसा पदार्थ कोई भी नहीं जिसमें ब्रह्म देव विराजमान न हों-वह निराकार परम चेतन, सर्व शक्तिमान् ब्रह्म ही पदार्थ के रूप में हमारे हाथ में आ गये हैं।
जो इन्द्रिय जिस वस्तु का सेवन करती है-जिससे वह वस्तु मिली है-सभी में ब्रह्म की सत्ता निर्विकार रूप में वर्तमान है। इस सत्य को हृदय से स्वीकार करना ही वस्तुतः ब्रह्म का दर्शन करना है। यह एक अचल सत्य है।
आवश्यकता तो इस बात की है कि मनुष्य इस सुने, पढे़, इस पर मनन करे, इसे अपनी बु़द्ध में जगह दे और फिर नामदेव भक्त की तरह वह भी रूखी रोटी उठा कर ले जाने वाले कुत्ते के पीछे घी लेकर भागने लगेगा और कहेगा कि अरे ब्रह्म रूप! घी तो लगा ले-काहे को रूखी रोटी खाता है ?
उसके छप्पर को जब आग लग गई और कुछ भाग उसका जल गया तो नामदेव भक्त क्या करता है कि बाकी बचा हुआ सामान भी आग में झोंक देता है-और कहता है कि हे मेरे अग्नि रूप परमात्मन्! आप भूखे क्यों रहते हो ? सारी कुटिया ही मेरी खा लो-जिससे आप की तृप्ति हो जाय-इसे कहते हैं ब्रह्म में जीना-
सन्त सद्गुरूदेव विश्व में प्रकट होकर यह ब्रह्ममयी दृष्टि मानव मात्र को दिया चाहते हैं। “तेन त्यक्तेन भुन्जीथाः” ऐ मानव! तू त्याग की पवित्र वृत्ति को धारण करके संसार में जीवन निर्वाह कर। सर्वदा ही चित्त में यह भावना होनी चाहिये कि यह जो कुछ भी है उस मेरे विश्वपिता का है।
वही सब को जितना, जैसा और जब देना चाहता है दे रहा है। संसार के सब जीव-जन्तु उसी के तो हैं-उन में क्या वह प्रभु नहीं विराज रहे ? भक्त के हृदय में सदा यही इच्छा रहती है कि पहले संसार की क्षुधा-तृषा मिट जाय-हम पीछे चिन्ता कर लेंगे। यह है “जीने दो और जियो।’’
परम भक्त माधव दास जी का प्रसंग आता है आप तीव्र वैराग्य धारण करके नीलगिरि के समुद्र तट पर जाकर पड़ गये और श्री जगन्नाथ जी भगवान् के ध्यान में विलीन हो गये। उनको तीन दिन तक अपनी कोई सुध-बुध न रही। भूख की पीड़ा का उन्हें भान तक भी न हुआ। तब चिन्ता हुई भगवान को-उन्होंने लक्ष्मी जी के द्वारा अपने श्री भोग प्रसाद में से कुछ पदार्थ उनके पास भिजवा दिये। सोने के थाल में प्रसाद लेकर जब लक्ष्मी जी वहां पहुंची तब वे ध्यान मग्न बैठे थे। ध्यान टूटने पर अपने सामने प्रसाद को पडा हुआ देखा-श्री प्रभु-कृपा समझकर प्रसाद खाया और थाल वहीं छोड दिया।
प्रातःकाल हुआ-श्री जगन्नाथ भगवान् जी के मन्दिर में आरति का समय हो गया-पुजारियों ने देखा कि वहां थाल ही नहीं है। दौड़ धूप की-माधव दास जी के पास थाल पड़ा देखकर पुजारियों ने उन्हें चोर बना दिया और लगे उन की निर्दयता से पिटाई करने। उन्हें क्या पता कि वह भगवान् के इतने प्यारे हैं कि सारी मार प्रभु स्वयं अपने ऊपर ले रहे हैं जब प्रभात में भगवान के श्रीविग्रह पर बेंतों की मार के निशान देखे तो वे बडे तिलमिलाये। इस पर भगवान स्वयं बोले कि वह स्वर्ण का थाल मैंने ही उनको दिया था। वे तो उसे लेना भी नहीं चाहते थे। पुजारियों ने माधव दास जी के चरण पकड़ लिये और उनसे अपने अपराध की क्षमा याचना की।
एक मनुष्य वे भी हैं-जो अपने जीने की तो तनिक भी चिन्ता नहीं करते। उन्हें अपने इष्टदेव के सच्चे घने प्यार के सागर में डूबे रहना प्रिय लगता है। ऐसे भक्तों के शरीर क्या पांच तत्वों से नहीं बने होते ? उन्हें सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास, कष्ट-क्लेश और निन्दा स्तुति से पाला क्या नहीं पडता ? सब कुछ होता है-वे इसी धरातल पर ही विचरण करते हैं, मृत्युलोक के प्राणियों के बीच में उन्हें रहना होता है परन्तु जैसे कछुआ अपने सारे अंगों को समेट कर पत्थर सी कठोर अपनी पीठ के नीचे छुपा लेता है वैसे ही ऐसे प्रभु के प्रिय जन अन्तःकरण की सम्पूर्ण वृत्तियों को अपने इष्टदेव को अर्पित करके परम शान्ति का आनन्द लेते हैं।
जो संस्कारी आत्माएं केवल परमार्थ परायण होती हैं-जिन्हें परमेश्वर के प्यार के बिना और कुछ सुहाता ही नहीं उनसे भगवान् भी सीधी और स्पष्ट बातें कर लिया करते हैं।
एक बार माधव दास जी अतिसार के रोग से घिर गये-बहुत ही कष्ट उन्हें हो रहा था-भगवान् अपने भक्त को व्यथित देखकर बोले भक्तों के लिये मैं सदैव बेचैन रहता हूँ। माधव दास जी ने सहज स्वभाव से कहा कि प्रभो! आप मेरी यह पीडा दूर ही कर दीजिये।
प्रभु ने उत्तर दिया कि यदि तुम्हारे इस कर्मभोग के भोगने से पूर्व ही तुम्हारी पीड़ा दूर हो जाय तो दूसरे भोगों को भोगने के लिये तुम्हें और जन्म धारण करना ही पडे़गा। यदि मैं ऐसा कर दूँ तो मुझे अपने ईश्वरत्व से विमुख होना पड़ता है। दूसरा कारण यह है कि भक्त की दुर्दशा देखकर मुझे बड़ा कष्ट होता है और मैं उसके कष्ट को बड़े कौशल से सहला दिया करता हूँ। भक्त की तो मैं ढाल होता हूँ-कामदेव के पैने शरों का सामना करने के लिये मैं उस का कवच बन जाता हूँ।
भक्तों का जीवन संसार की मोह-माया में उलझे हुए लोगों के जीवन से विपरीत होता है। संसारी पुरूष पहले अपने सुख की चिन्ता करता है फिर यदि हो सका तो दूसरे के दुःख को भी दूर करने के लिये पग बढ़ायेगा। उसकी मान्यता ही यही है कि “जियो और जीने दो’’-अथवा कभी कभी यह कहता हुआ सुना जायेगा’’ तुझ को परायी क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू’’-पहले आत्मा और फिर परमात्मा-आदि आदि।
सच है-संसारी भी क्या करे-शैशव काल से लेकर मरण-काल तक सिवाय संसार और उसके नश्वर भोग-पदार्थों के और कुछ उसे सूझता ही नहीं। अपनी इन्द्रियों को रिझाना ही उसकी पूजा है-मन को सन्तुष्ट करना उसका हरि आराधन है और बुद्धि के द्वारा छल-छद्म, चोरी-मक्कारी, डकैती तथा धोखा-धड़ी से काम लेना उस की जीवन सफलता है। वह इस नश्वर जगत् की अटपटी उलझनों के जाल में फँसा हुआ किंकर्त्तव्य विमूढ़ सा हुआ हुआ अपने सुदुर्लभ मानुष-जन्म को निरर्थक खो बैठता है।
इस वर्तमान वैज्ञानिक युग में, जीने दो की विमल सद्भावना विलुप्त हुई जा रही है। “परार्थ अर्थात् दूसरे के निमित्त भी कुछ करना मनुष्य का धर्म है।’’ यह रूचिर विचार स्वप्न बनता जा रहा है। स्वार्थ-सिद्धि आज के मानव मानस का अंग है। वह ’जियो’ तक ही अपने को देखना चाहता है। दूसरे के शरीर में भी मेरे प्राणों जैसे प्राणों का संचरण हो रहा है यह दृष्टि धीरे-धीरे विदा होती जाती है।
कहाँ वह राजा शिवि जो एक कपोत (कबूतर) के प्राणों की रक्षा करने के लिये अपने समूचे शरीर को तुला के दूसरे पलडे़ में चढ़ा देता है। कहां वह राजा रन्तिदेव जो 49 दिन तक सपरिवार भूखा रह जाता है परन्तु द्वार पर आये हुए किसी अभ्यागत को अन्न खिलाये बिना लौटाता नहीं।
पाण्डव वन में विचर रहे थे। एक ब्राह्मण परिवार के घर में अतिथि जा बने। एक दिन ब्राह्मणी को गहरी चिन्ता में डूबा हुआ देखकर माता श्री कुन्ती जी ने उससे उसके दुःख का कारण पूछा-वह गृह पत्नी बोली-बहन! इस हमारे जनपद में एक बकासुर नाम का महादैत्य रहता है। वह अपने आहार के लिये स्वच्छन्द होकर कितने ही लोगों का संहार कर देता था।
एक दिन हमारी नगरी के गण-मान्य पुरूषों ने उससे प्रार्थना की कि हम तुझे एक न एक व्यक्ति अपने परिवार में से तेरे भोजन के लिये भेज दिया करेंगे तू मनमाना सर्वनाश न किया कर। उसी नियम के अनुसार आज मैं अपना बलिदान दिया चाहती हूँ। अपने पतिदेव और पुत्रों से यही कह रहीं हूँ कि तुम सब बडे़ आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करो मैं दैत्यराज के पास जाती हूँ।
पुत्र कहते हैं कि ऐ माता! ऐसा कदापि नहीं होगा। तू हमारी जन्मदात्री है-अतुल स्नेह बरसाने वाली जननी है-हम तुझे नहीं जाने देंगे। यह धर्म हमारा है कि माता को पूर्ण सुख देवें। हमारा जीवन किस काम का जो स्वयं जीने की इच्छा करें और तुम प्राण विसर्जन कर दों। नहीं होगा-शेष रहे पतिदेव। सती नारी पति परायणा होती है-वह अपने जीवन काल में पति का वियोग कदापि सहन नहीं कर सकती। अब दैत्यराज के भोजन करने का समय भी हुआ चाहता है इसलिये मैं उस की अध्यशिला पर बैठने के लिये जाने का आग्रह कर रही हूँ।
माता कुन्ती ने कहा कि ऐ ब्राह्मणी! तनिक रूक जा-मैं अभी घर से होकर आती हूँ-यह कह कर कुन्ती माता पुत्रों के पास गई और उनसे उस ब्राह्मणी की सारी करूणापूर्ण गाथा कह सुनाई। भीमसेन तो वैसे ही गठीले बदन के थे बडे़ बलवान् और पराक्रमी। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणी के परिवार के हम बडे़ ऋणी हैं-हमें उसके किये हुए अतिथि-सत्कार का बदला चुकाना चाहिये अतः मैं ही वहां राक्षस बकासुर के पास जाता हूँ तुम ब्राह्मणी के परिवार को इस मरने के भय से मुक्त कर दो। वैसा ही किया गया-
भीम बध्यशिला पर पहले ही बैठ गये और लगे अपने साथ लाये हुए भोजन पर हाथ साफ करने। बकासुर समय पर आया और सामने विशालकाय एक हष्ट-पुष्ट ब्राह्मण पुत्र को देखकर गरजा-भीम ने भी कहा कि आज तुम्हारा अन्तिम दिन है तुम महाकाल के गाल में समा जाने के लिये उद्यत हो जाओ’-तुम कौन हो मुझे नाकों चने चबवाने वाले ? ज़रा संभलकर बात करो तुम नहीं जानते मैं बकासुर हूँ। तुम जैसे कितनों को मैं अपनी फूँक से उड़ा चुका हूँ-तुम कौन से खेत की मूली हो ? इस प्रकार उनका आपस में पहले तो वाग्युद्ध छिड़ा और फिर शस्त्रों पर उतर आये-भीम ने उसे भुजबल से ऊपर आकाश में घुमाकर नीचे ऐसा पटका कि उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
ब्राह्मण परिवार की तो रक्षा हो गई और सारे जनपदवासियों का परम कल्याण हो गया। यह है जीने दो और जियो-मनुष्य का जन्म परोपकार से ही निखरा करता है। मानव मानव है यह मात्र भोग योनि का प्राणी नहीं है। इसे नवीन कर्म करने का भी अधिकार है । प्रारब्ध कर्मों का जहां इसे उपभोग करना है वहां इसे यह भी सोचना है कि मेरे वर्तमान जन्म में किये जाने वाले कर्मों में कुछ विशेषता होनी चाहिये।
आहार निद्रा भय सन्ततिश्च,
सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो।
धर्मेण हीनः पशुभिः समानः।।
मनुष्य और पशु इन चार बातों में एक ही कोटि के समझे जाते हैं-1. भोजन 2. नींद 3. प्राणों का भय और 4. सन्तानादि का जनन, भरण और पोषण इस में विशिष्टता केवल इसी बात की बतलाई गई है कि यह अन्य समस्त प्राणियों को भी जीवन धारण करने दे और स्वयं भी अति सुन्दरता के साथ जिये।
दूसरों के जीवन-विपिन में से पत्ते, कलियां फूल और फल बिना उन की अनुमति के न तोड़े। औरों का भी इस प्रभु की सृष्टि पर जीवन जीने का वैसे ही अधिकार है जैसे इस का। पृथ्वी पर सभी जीवों को चलना है। पवन हर एक को प्राणदायक सिद्ध हो। आकाश में सभी प्राणी आनन्दपूर्वक विचरण करें। जल का लाभ प्रत्येक जीवधारी निस्संकोच किया करे। अग्नि तत्व प्राणिमात्र के सदुपयोग के हेतु ही बनाया गया है। समस्त जीव-जन्तु इससे पूरा पूरा लाभ ले सकें ऐसी सद्भावना मनुष्य मात्र में होनी चाहिये।
वेद भगवान् इसीलिये आदेश देते हैं-“तेन त्यक्तेन भुंजीथाः-”अर्थात् अणु-अणु में क्योंकि वह ब्रह्म अधिष्ठित है। ऐ जीव! तू संसार का उपभोग निश्शंक होकर किया कर परन्तु परमपिता, सृष्टि कर्ता उस सर्वव्यापी ब्रह्म की सत्ता को कभी भी भुला नहीं-इससे क्या होगा ? तेरे मन में यह खुटक सदा ही बनी रहेगी मेरी इस वस्तु में जिस का मैं सेवन कर रहा हूँ चाहे वह जड़ है या चेतन-एक और विराट् शक्ति भी विद्यमान है जो मेरे सारे कार्य को बडी ही सतर्कता के साथ निहार रही है।
इससे मनुष्य को सदा ही यह भय बना रहेगा कि मैं उस वस्तु को केवल अपनी ही सम्पत्ति न समझूँ इस पर मेरा सोलह आने अधिकार नहीं है-यह वस्तु मेरी वास्तव में है ही नहीं। है तो उसी की किन्तु मैंने केवल इस का उपभोग मात्र ही करना है। मुझे अपनी आवश्यकता भर को इससे पूरा करना है-इसे अपने अधिकार में कर लेने का मुझे कोई हक नहीं।
आज मानव-जगत् तो क्या जीवमात्र दुःखी है विश्व में हर एक उपयोगी वस्तु की प्राप्ति में संकट उत्पन्न हो रहा है इसका मूल कारण यही है कि स्वार्थान्धता का बोलबाला है।
हमारे निबन्ध का विषय है “जीने दो और जियो” यह सोपान एक पग और ऊँची है। प्रभु प्रिय प्राणी वह होगा जो औरों को जीवन पहले दे दे पुनः अपने जीवन को यदि वह दिये हुए जीवन से बच गया है तो जीने की इच्छा कर ले।
“जीने दो और जियो” के आदर्श को अपने जीवन में उतारने वाले एक और सन्त हुए हैं “अबु उस्मान हायरी।” उनके हृदय में बचपन से ही यही एक भाव सदा काम किया करता था कि जिस धर्म को ये लोग पुस्तकों और शास्त्रों में ढूँढा करते हैं वह धर्म कोई और ही है। धर्म को वाक्यों में बाँधा नहीं जा सकता-उसका गौरव और महत्व अवर्णनीय है।
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