सनकादिक विधिलोक सिधाये ।
भ्रातन राम चरण शिर नाये ॥ पूछत प्रभुहिं सकल सकुचाहीं ।
चितवहिं सब मारुत सुत पाहीं ॥ सुना चहहिं प्रभु मुख की बानी ।
जो सुनि होय सकल भ्रमहानी ॥ अन्तर्यामी प्रभु सब जाना ।
पूँछत काह कहहु हनुमाना ।। जोरि पाणि तब कह हनुमन्ता ।
सुनिये दीनबन्धु भगवन्ता ॥ नाथ भरत कछु पूंछन चहहीं ।
प्रश्न करत मन सकुचत अहहीं ॥ तुम जानहु कपि मोर स्वभाऊ ।
भरतहि मोहिं नहिं अन्तर काऊ ॥ सुनि प्रभु वचन भरत गहि चरणा ।
सुनहु नाथ प्रणतारति हरणा ॥
दोहा
नाथ न मोहिं सन्देह कछु, स्वप्नेहुँ शोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारि प्रभु, चिदानन्द सन्दोह।।
जब सनकादिक मुनि ब्रह्मलोक को चले गए, तब इधर तीनों भाइयों ने श्रीराम जी के चरणों में सिर निवाया। कुछ पूछना चाहते हैं, परन्तु प्रश्न करने में सकुचाते हैं और महावीर जी की ओर देखते हैं जिसका भाव यह था कि वे हनुमान द्वारा श्रीरघुनाथ जी से प्रश्न करना चाहते हैं। | उनके मन की अभिलाषा प्रभु के मुख की वाणी सुनने की है जिसके सुनने से सब भ्रम मिट जाते हैं।
भगवान श्री रामजी अन्तर्यामी हैं उन के दिलों की भावना को जान गए और कहने लगे-हे हनुमान्! क्या पूछना चाहते हो? तब हनुमान जी हाथ जोड़ शिर निवाय कर बोले-हे दीनों के रक्षक प्रभु! कुमार भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, परन्तु प्रश्न करते मन में सकुचाते हैं अर्थात् आपके सन्मुख कुछ पूछने में लज्जा करते हैं। तब श्रीराम जी बोले-हे पवन कुमार! तुम मेरे स्वभाव को जानते ही हो कि भरत जी मेरा ही रूप हैं, उनमें और मुझमें कुछ भी अन्तर नहीं है।जो भी वे पूछना चाहते हैं, संकोच को त्यागकर पूछ सकते हैं।
अपने प्रभु के ऐसे वचन सुनकर भरत जी चरणों पर गिरे और हाथ जोड़कर विनय करने लगे-हे दीनों के दुःख हरनेवाले नाथ! मेरे मन में स्वप्न में भी कुछ सन्देह और शोक व मोह भम नहीं है। मैं आप की कृपा से सदा संशय-भ्रमों से रहित हूँ।
चौपाई
करों कृपानिधि एक ढिठाई । मैं सेवक तुम जन-सुखदाई ।।
सन्तन की महिमा रघुराई । बहुविधि वेद पुराणन्ह गाई ।।
श्री मुख तुम पुनि कीन्ह बड़ाई । तिन पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ।।
सुना चहहुँ प्रभु तिनकर लक्षण । कृपासिन्धु गुण ज्ञान विचक्षण ॥
सन्त असन्त भेद बिलगाई । प्रणतपाल मोहिं कहहु बुझाई ॥
सन्तन के लक्षण सुनु भ्राता । अगणित श्रुति पुराण विख्याता ॥
सन्त असन्तन की अस करणी । जिमि कुठार चन्दन आचरणी ॥
काटइ परशु मलय सुनु भाई । निजगुण देइ सुगन्ध बसाई ।।।
दोहा
ताते सर शीशन चढ़त, जग वल्लभ श्रीखण्ड ।
अनल दाहि पीटत घनहिं, परशु वदन यह दंड ।।
तब भरतजी हाथ जोड़कर बोले-हे दीनानाथ! सन्तों की महिमा वेद और पुराण सब ने अनेक प्रकार से बहुत ही गाई है और आपने भी अपने मुख से सन्तों की बड़ाई की है तथा उन पर आपकी प्रीति भी अधिक है, सो हे स्वामिन् ! आपके मुख से उन सन्तों के लक्षण सुनना चाहता हूँ। हे दीनों के पालन करनेवाले प्रभु! सन्तों और असन्तों के भेद को मुझे समझा कर कहिए। भरत जी की ऐसी वाणी सुनकर और उनके दिल की भावना को जान कर श्री भगवान प्रसन्न हो बोले-ऐ प्यारे! ध्यान देकर सन्तों के लक्षण सुनो!
सन्तों के गुण अनन्त और अपार हैं और वेदों तथा पुराणों ने सन्तों के गुणों को बहुत ही गाया है। हे भाई! संत और असन्तों की ऐसी करणी है जैसे कुल्हाड़े के साथ चन्दन का आचरण और चन्दन के साथ कुल्हाड़े का आचरण होता है। देखिये कुल्हाड़ा जिस समय चंदन को काटता है तो मलय कहिये चंदन उस कुल्हाड़े के साथ विरुद्ध आचरण न करता हुआ उलटा उसे सुगन्धि देता है। भाव कि अपने अहित करने वाले के साथ भी हित करता है।
ये सन्तों के गुण हैं कि ये बुराई करनेवाले के साथ भी भलाई करते हैं। उनके चित्त में किसी की बुराई का संकल्प भी नहीं उठता। वे मन, वचन, कर्म से सब जीवों का भला ही चाहते हैं ; परन्तु फिर भी प्रकृति के नियमानुसार जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल पाता है। कुदरत के नियम में देर भले ही क्यों न हो जाए लेकिन होता न्याय ही है।
अब देखिये कुल्हाड़े ने चन्दन को काटा और चन्दन ने उसे सुगन्धि दी। परन्तु कुदरत तो कुदरत है, वह कटा हुआ चन्दन तो मन्दिरों में पहुँच कर तिलक के रूप में देवलाओं के मस्तक का शृंगार बना और वह काटने वाला कुल्हाड़ा जब चन्दन को काटते काटते उसके मुँह की धार कन्द हो गई तो वह लोहार के पास पहुँचा। लोहार ने उसे आग में तपा कर भारी घन से बार बार कूटा। यह उसको दण्ड मिला, क्योंकि उसने कर्म ही ऐसा किया था। सत्य है कुदरत के घर में न्याय है अन्याय नहीं है।
इसी प्रकार सन्तों और खोटे पुरुषों का आचरण है। खल पुरुष सन्तों को दुःख देते हैं और सन्त उनका हित करते हैं परन्तु परिणाम दोनों का पृथक् पृथक् है। अन्त में सन्त परमधाम को जाते हैं और खल पुरुष यम के मुगदरों से पीटे जाते हैं। परमसन्त कबीर साहिब जी का भी वचन है-
दोहा
भलियन स्यों भला करें, यह जग को ब्योहार ।
बुरियन स्यों भला करें, ते विरले संसार।।
भलियन से भला करना अर्थात् जिसने आपके साथ भलाई की, आपने उसके साथ भलाई कर दी, यह तो संसार का व्यवहार है जो सब जगह चलता दिखाई देता है। परन्तु जो पुरुष बुरा है, उसके साथ भलाई करना यह किसी विरले का काम है। ये विरले कौन हैं? ये विरले पुरुष सन्त ही हो सकते हैं, दूसरा कोई भी ऐसी करनी नहीं कर सकता। और वचन है कि बदला लेना सुगम है - परन्तु क्षमा कर देना कठिन।
बदला लेना दुर्बलता और क्षमा कर देना शक्ति, ये दोनों के चिन्ह हैं। हमारे श्री गुरु महाराज जी श्री तीसरी पातशाही जी का वचन है कि बदला न लेना यदि सारी नहीं तो आधी दुनिया पर तो विजय प्राप्त कर लेना है। यह मन की जीत हार का प्रश्न है। बदला न लेना मन को जीतना है। जिसने मन को जीत लिया, मानो उसने संसार को जीत लिया और जिसने मन को नहीं जीता, उसने कुछ भी नहीं किया। अब भगवान श्री राम जी सन्तों के गुण वर्णन करते हैं:
चौपाई
विषय अलंपट शील गुणाकर। पर दुःख दुःख सुख सुख देखे पर ।।
कोमल चित दीनन पर दाया । मन वच क्रम मम भक्त अमाया ।।
सबहि मानप्रद आपु अमानी । भरत प्राणसम मम ते प्रानी ।।
बिगत काम मम नामपरायन । शान्ति विरति विनती मुदितायन ।।
दोहा
निन्दा अस्तुति उभय सम, ममता मम पदकंज।
ते सज्जन मम प्राणप्रिय, गुण मन्दिर सुख पुँज ।।
श्री भगवान बोले-हे भरत जी! साधुजन इन्द्रियों के विषय भोगों से भिन्न और शील गुणों की खान होते हैं | तथा साधुजन हृदय के इतने कोमल होते हैं कि वे पराये दुःख से दु:खी और दूसरे का सुख देखने पर सुखी होते हैं। अथवा सन्तजन समदर्शी होते हैं, जिनका न कोई शत्रु है न मित्र है।
वे सब प्राणिमात्र में अपने भगवान को देखते हैं अर्थात् समस्त जगत् को भगवान्मय समझते हैं। जिनको विषयों से सदा वैराग्य रहता है और जिन्होंने लोभ, क्रोध आदि तथा हर्ष, शोक और भय को त्याग दिया है, कोमल चित्त हैं, दीनों के ऊपर दया करने वाले तथा मन, वचन, कर्म से माया के लगाव से रहित हैं. ये सब लक्षण सन्तों के हैं।
हे भरत जी! साधु सन्तों में एक और बड़ा गुण यह है कि वे सब को मान देने वाले और आप मान रहित हैं। हे तात! ऐसे सज्जन पुरुष मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं। अब आगे और सुनिये, वे सन्तजन सदा कामना से रहित अर्थात् निष्काम भाव से अपने प्रभु के नाम में तत्पर रहते हैं। शान्ति, वैराग्य, नम्रता और हर्ष के भण्डार हैं। सब प्राणियों के साथ शीतलता, सरलता और मित्रता रखते हैं।
हे भाई भरत! ये सब लक्षण जिनके हृदय में बसते हैं तथा जो शान्ति और इन्द्रियों के जीतने के नियम में रहकर नीति नहीं त्यागते और कभी कठोर वचन मुख से नहीं बोलते, उनको पूरा सन्त समझना चाहिये। तथा जो निन्दा और स्तुति दोनों को समान जानकर अपने प्रभु के चरण-कमलों में प्रीति रखते हैं, ऐसे सज्जन महात्मा मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं। हे भ्राता! वे गुणों के मन्दिर और सुख के पुँज अर्थात् समूह हैं। ये सब गुण और स्वभाव सन्तों के हैं।
चौपाई
सुनहु असन्तन-केर सभाऊ ।।
भूलेहु संगति करिय न काऊ || तिन कर संग सदा दुखदाई..।
जिमि कपिलहिं घालै हरहाई ॥ खलन हृदय अतिताप विशेखी ।
जरहिं सदा पर संपति देखी ।। जहँ कहुँ निन्दा सुनहिं पराई ।
हर्षहि मनहुँ परी निधि पाई ॥ काम क्रोध मद लोभ परायन ।
निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥ वैर अकारण सब काहू सों ।
जो कर हित अनहित ताहू सों ॥ झूठे लेना झूठ देना ।
झूठ भोजन झूठ चबेना ॥ बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा ।
खाहिं महा अहि हृदय कठोरा ।।
श्रीभगवान बोले-ऐ भ्राता! अब असन्तों अर्थात् खोटे - पुरुषों के स्वभाव को सुनो। ऐसे पुरुषों की संगत मनुष्य को भूल कर भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ऐसे पुरुषों का संग मनुष्य के लिये सदा दुखदाई है। उनकी संगत करने वालों की ऐसी दशा होती है जैसे कपिला गाय को हरहाई अर्थात् खेत उजाडू गाय के संग दण्ड होता है। प्रमाण के रूप में हरहाई गाय के संग कपिला कामधेनु गाय हरा खेत खाने को गई। जब खेत का मालिक आया तो हरहाई तो भाग गई और कपिला बेचारी पीटी गई।
और सुनो, दुष्ट पुरुषों के हृदय में सदा ही ईर्ष्या की अग्नि तपायमान रहती है। वे सदा पराई सुख सम्पत्ति को देखकर जलते रहते हैं अथवा किसी दूसरे के सुख को देखकर सहन नहीं कर सकते। हे भ्राता! दुष्ट पुरुषों का यह भी स्वभाव है जब वे पराई निन्दा सुनते हैं तो ऐसे प्रसन्न होते हैं मानो कहीं पड़ी हुई सम्पदा पा ली हो। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार सदा धारण किये हुए हैं। इन्हीं का श्रवण होता है और इन्हीं का मनन होता है।
भाव यह कि यह पाँच चोर ही दुष्ट पुरुषों की ओट और आसरा हैं। इन्हीं के आधार पर वे जीते हैं। बड़े निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापात्मा होते हैं। बिना कारण के दूसरों के साथ वैर करना उनका सहज स्वभाव होता है। यहाँ तक कि जो कोई उनके साथ हित की बात करे, उससे भी वैर करते हैं। उन खोटे पुरुषों का लेन-देन, खान-पान पहरान, रहन-सहन सब झूठ से मिला होता है।
वचन तो - वे मोरों के समान मीठे बोलते हैं पर हृदय के ऐसे कठोर हैं कि सर्पो का भी भक्षण कर जाते हैं अर्थात् मोर की बोली तो मीठी होती है परन्तु सर्प को भी वह खा जाता है।
ऐसे ही दुष्ट पुरुषों के स्वभाव को भी समझो। दूसरों के साथ द्रोह करना, पराया धन छीनने की इच्छा रखना और निन्दा करना, ये बातें उनमें स्वाभाविक होती हैं। हे भाई भरत! ऐसे मनुष्य महानीच और पापात्मा समझने चाहियें। ये मनुष्य देह धारण किये हुए राक्षस हैं।
चौपाई
लोभै ओढ़न लोभै डासन । शिश्नोदर पर यमपुर त्रासन ।।
जब काहू की देखहिं विपती । सुखी होहिं मानहुँ जग नृपती ।।
करहिं मोहवश द्रोह परावा । संत-संग हरिकथा न भावा ।।
दोहा
ऐसे अधम मनुज खल, कृतयुग त्रेता नाहिं ।
द्वापर कछुक वृन्द बहु, होइ हैं कलियुग माहिं ।।
भगवान बोले-हे भरत जी! ऐसे खोटे मनुष्य जिनका लोभ ही ओढ़ना है और लोभ ही बिछौना है, महाकामी, क्रोधी अथवा सदा ही पेट भरने की कथा में तत्पर रहते हैं। अर्थात् जैसे कैसे भी हो पेट भरने का उपाय करना तथा इन्द्रियों के विषय भोगों की चिन्ता में लीन रहना जिनके जीवन का लक्ष्य है। और वे मूर्ख परलोक में यम का डर भी नहीं रखते।
सो ऐसे पुरुषों को ही यमलोक में त्रास मिलते हैं। हे भ्राता! ऐसे प्राणी जब किसी की भलाई और उन्नति की बात सुनते हैं तो इस प्रकार ठण्डा श्वास लेते हैं जैसे बुखार चढ़ गया हो। और जब किसी की विपत्ति देखते हैं तो ऐसे प्रसन्न होते हैं मानो सारे जगत् का राज्य इन्हीं के हाथ में आ गया हो।
मोह और अज्ञान के वशीभूत होकर पराया द्रोह करते हैं। उनको सन्तों की संगत और भगवान् की कथा अच्छी नहीं लगती। भगवान् कहते हैं, ऐसे दुष्ट पुरुष सतयुग और त्रेता में नहीं हैं, द्वापर में कहीं कहीं प्रगट होंगे परन्तु कलियुग में तो इनकी बाढ़ आ जाएगी।
प्राचीन धर्मग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि सतयुग, त्रेता आदि पिछले युगों में पाप नहीं था या बहुत कम था। लोग धर्मपरायण थे, खोटी संगत नहीं थी, लोग कर्म-धर्म में लीन रहते थे, ऋषि मुनियों का ज़माना था । जो प्राय: वनों में रह कर तप किया करते थे और उस तप से प्राप्त शक्ति द्वारा लोगों को वरदान और शाप भी दिया करते थे।
रूहानियत का प्रचार नहीं था या बहुत कम था। अधिक से अधिक उन धर्मपरायण लोगों के मन की विचारधारा स्वर्ग तक ही पहुँचती थी जो कि देह त्यागने के पश्चात राज्य या स्वर्ग को प्राप्त करते थे।
जीव का जन्म मरण के चक्र से छुटना और सुरति का नरक स्वर्ग दोनों से तथा मन और माया के बन्धनों से मुक्त होकर उसके निजधाम अर्थात् सतलोक व दयाल देश में पहुँचने का साधन बहुत कम था। उसका कारण यह था कि ऋषि मुनि तो भले ही बहुत थे, परन्तु सन्तों के अवतार नहीं थे।
विशेषकर सन्तों के अवतार कलियुग में ही हुये हैं, कारण यह कि कलियुग में रूहानी बीमारियाँ बहुत बढ़ी हई हैं। सन्त रूहानी डॉक्टर होते हैं। कुदरती बात है, जब बीमारियां बहुत बढ़ जाती हैं तो डॉक्टरों का प्रगट होना भी आवश्यक हो जाता है। कबीर साहिब की बाणी है-
दोहा
कलियुग सम युग आन नहिं, सन्त धरें अवतार ।
जीव शरण गहे गुरु की, भव जल उतरे पार ।।
इस दृष्टिकोण से यदि देखा जाये तो कलियुग के समान दूसरा कोई युग नहीं है क्योंकि इसमें सन्तों के अवतार होते हैं जो जीव को अपनी चरण शरण के सहारे भवसागर से पार करते हैं।
शुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं -एक कामना सहित और दूसरे कामना रहित। कामना सहित जो कर्म होते हैं उनसे मन शुद्ध नहीं होता और जो निष्काम शुभ कर्म होते हैं उनसे मन और आत्मा शुद्ध होते हैं।
जिन जीवों की आत्मा शुद्ध और निष्काम शुभ कर्म करते करते मन शुद्ध हो जाता है तो ऐसे शुद्ध हृदय में वैराग्य का उत्पन्न हो जाना कुदरती बात है। जब वैराग्य उत्पन्न हो जाता है तो उसके बाद अभ्यास में वृत्ति लगती है।
पिछले युगों में योगी लोग भी होते थे जो संसार से वैराग्य धारण कर के घर बार त्याग बन में जाकर योगाभ्यास करते थे यानि योग-अभ्यास का सिलसिला भी पिछले युगों में चलता था, परन्तु वह योगाभ्यास उनका पिण्डदेश तक ही सीमित रहता था।
सन्तमत के महापुरुषों ने रूहानी दृष्टिकोण से इस शरीर के तीन भाग वर्णन किये हैं-पहला पिण्डदेश जो आँखों के मध्य स्थान से नीचे है। इसमें मन और माया का जोर है। यह जीव सृष्टि है। इस पिण्डदेश में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी मन्त्री-मण्डल की सहायता से मन रूपी राजा राज्य करता है। इस देश में छ: स्थान हैं जिनको छ: चक्र भी कहा जाता है और इन छ: स्थानों के पृथक् पृथक् धनी या देवता हैं। इन स्थानों और देवताओं के नाम ये हैं -
पहला गुदा स्थान-इसका नाम मूलाधार चक्र है और देवता गणेश जी हैं।
दूसरा लिंग स्थान-इसका नाम स्वाधिष्ठान चक्र है। इसका धनी या देवता ब्रह्मा सावित्री हैं।
तीसरा नाभि स्थान-इसका नाम मनीपूरक चक्र है। इस स्थान का धनी या देवता विष्णु और लक्ष्मी हैं।
चौथा हृदय स्थान-इसका नाम अनहद चक्र है। इस स्थान के धनी या देवता का नाम शिव और पार्वती हैं।
पाँचवां कण्ठ स्थान-इसका नाम विशुद्ध चक्र है। इस स्थान का धनी या देवता शारदा यानि सरस्वती हैं।
छटा दोनों आँखों के मध्य में है। इस स्थान का नाम आज्ञा चक्र है। इस स्थान के धनी का नाम जोत निरंजन है। यह स्थान पिण्ड और ब्रह्मांड की सीमा में है। इससे ऊपर ब्रह्माण्ड की हद शुरु हो जाती है।
ऊपर पिंड देश के जिन छ: चक्रों का वर्णन हुआ है, पिछले जमाने में योगी लोग संसार से वैराग्य धारण करके वन में जाकर जब योगाभ्यास में लगते थे तो वे अभ्यास द्वारा इन छ: चक्रों को बेधते अर्थात् पार करते थे और इन चक्रों से गुजरने में उनको बहुत समय लगता था और साथ ही कठिनाइयाँ भी बहुत थी क्योंकि यह सृष्टि मन और माया की सृष्टि थी। इसलिए अभ्यासी को मन और माया का सामना स्वयं करना पड़ता था जोकि अति कठिन काम था।
परन्तु शरीर की आयु उस ज़माने में दीर्घ होती थी इसीलिए योगी लोग इन छ: चक्रों को पार करने में चिरकाल तक लगे रहते थे और इस अभ्यास का आरम्भ मूलाधार चक्र जहाँ गणेश जी का निवास है, से होता था।क्योंकि योगी लोग अभ्यास गणेश जी के स्थान से शुरु करते थे, इसलिए उनकी देखादेखी संसार के अन्दर हर कार्य के आरम्भ में गणेश जी की पूजा का रिवाज जारी हो गया।
लेकिन इस ढंग से अभ्यास का साधन बहुत कठिन कार्य था। इसलिए इसमें सफलता बहुत ही कम अभ्यासियों को मिलती थी। अगर किसी को सफलता मिल भी जाती थी तो उसका परिणाम प्राय: यह होता था कि अभ्यासी के अन्दर सिद्धि शक्ति उत्पन्न हो जाती थी और अभ्यासी उसको सब कुछ जान कर उसमें अटक जाते थे। सन्तों के विचार अनुसार सिद्धि शक्ति भी माया ही का खेल है। जो अभ्यासी सिद्धि शक्ति में अटक जाते हैं वे भी अपनी मंजिल से भूले ही समझने चाहियें।
चूँकि कलियुग में - मनुष्य की आयु बहुत कम है, इसलिए कलियुग में जो सन्त अवतार हुए उन्होंने उचित जानकर पिण्डदेश की सारी कमाई की पूर्ति के लिए केवल एक अजपा जाप का साधन रख दिया और जीव के मन माया से छूटने के मार्ग को सुगम बना दिया। जब जीव का अजपा जाप सिद्ध हो जाता है, तब समझ लेना चाहिए कि जो फल पिण्ड देश की कमाई से अभ्यासी को मिलता था, वह फल केवल अजपा जाप के अभ्यास से प्राप्त हो गया है। मन शुद्ध होकर भजन में लगता है, सुरति साफ होकर ब्रह्माण्ड देश में चढ़ाई करने के योग्य बनती है और रूहानी शान्ति प्राप्त होती है।
इस विषय में एक विशेष बात ध्यान देने योग्य यह है कि पिछले ज़माने में तीसरा तिल अर्थात् आज्ञा चक्र जहां योग-अभ्यास की अन्तिम मंजिल समझी जाती थी, वहाँ सन्त मत के अनुसार 'आज्ञाचक्र' अभ्यास की पहली सीढ़ी है। यहाँ से सन्त अभ्यास शुरु करवाते हैं।
इस शरीर में दूसरा रूहानी भाग है ब्रह्माण्ड देश, जो आँखों के मध्य अर्थात् तीसरा तिल जिसको सन्त आज्ञा चक्र भी कहते हैं, से लेकर चोटी के मुकाम तक इसकी हद है। इसमें सात स्थान हैं। पहला-तीसरा तिल यानि आज्ञाचक्र। यह स्थान पिण्ड और ब्रह्माण्ड की सीमा में है, इसलिए यह स्थान पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों में गिना जाता है। पिण्ड देश की अन्तिम मंजिल और ब्रह्माण्ड देश का यह आरम्भ है। इस कारण इसकी गिनती दोनों देशों में मानी गई है। दूसरा सहस्रदल कंवल, तीसरा-त्रिकुटी स्थान, चौथा-सुन्न यानि दसवां द्वार, पाँचवा-महासुन्न, छटा-भंवर गुफा, सातवां-सतलोक।
इन ब्रह्माण्डी स्थानों से भिन्न भिन्न शब्द उत्पन्न हो रहे हैं, जिनको सन्तों ने अनहद शब्द का नाम दिया है। वेद मार्ग पर चलने वाले इन शब्दों को आकाशवाणी कहते हैं, भगवद्गीता में इन को शब्द ब्रह्म कहा गया है, मुसलमानों के पैगम्बरों यानि महापुरुषों ने इन शब्दों को गायबी आवाज़ या इलहाम कहा है, दरवेशों ने इन शब्दों को सुल्तानुलजिकार यानि जिकरों का बादशाह माना है।
ये रूहानी शब्द हैं। सब महापुरुषों न चाहे वे किसी भी पंथ या मज़हब से सम्बन्ध रखते थे, इस हकीकत को स्वीकार किया है और भिन्न भिन्न देशों में रहने तथा भिन्न भिन्न भाषा होने के कारण सबने अपनी अपनी भाषा में इन शब्दों को भिन्न भिन्न नामों से पुकारा है, क्योंकि रुहानियत तो सब मजहबों और पन्थों में सदा से एक रही है और एक ही रहेगी। शरीर बदलते हैं, जमाना बदलता है, नियम और नीति समय समय अनुसार बदलती है परन्तु असलियत किसी भी ज़माने में अथवा किसी महापुरुष के शासन में न बदली है, न बदल सकती है। वह सदा एक सार, एक रस और एक समान सब जगह परिपूर्ण है। गुरुवाणी की आवाज़ है:
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ।।
वर्णन हो रहा है बह्मण्डी शब्दों का, जिनको सन्त मत के महापुरुषों ने अनहद शब्द का नाम दिया है। अनहद का अर्थ है कि जिसकी कोई हद नहीं है। बाहरी शब्द हद के अन्दर हैं। हद के अन्दर वह बात होती है जिसका आरम्भ और समाप्ति का मनुष्य को ज्ञान होता है। परन्तु उन ब्रह्मण्डी शब्दों को अनहद का नाम इसलिये दिया गया है कि उनके आरम्भ और समाप्ति का किसी को ज्ञान नहीं है।
दूसरी बात यह कि बाहरी शब्द मायावी शब्द हैं, जिन को बाहर के कान सुनते हैं और जिनके सुनने से मन की वृत्तियां बाहर माया में बिखरती हैं, परन्तु वे ब्रह्मण्डी शब्द रूहानी शब्द हैं जो रूह के कानों से अपने अन्तर में सुने जाते हैं और उनके सुनने से मन की वृत्तियां सिमट कर अपने अन्तर में लगती हैं और सुरति रूहानी रस का पान करती है। सुरति तीसरे तिल से चलकर इन शब्दों के सहारे से ही हर स्थान से गुज़रती हुई सतलोक तक पहुँचती है। जैसे मकड़ी तार को पकड़ कर ऊपर चढ़ जाती है, ऐसे ही सुरति शब्दों के सहारे सतलोक अर्थात् चोटी के मुकाम तक जा पहुँचती है। सतलोक तक पहुँचे हुए का सन्त का दर्जा होता है।
तीसरा भाग इस शरीर में दयाल देश है, जो चोटी के मुकाम यानि सतलोक से शुरु होता है। यह खालिस रूहानियत का भंडार है। इस देश में तीन स्थान और हैं अलख लोक, अगम लोक और अकह लोक। यह महान् चेतन और महान् प्रकाश रूप देश है। यहां सब प्रकाश ही प्रकाश है। वास्तव में हमारी सुरति या रूह का भंडार यही स्थान है। यहां पर पहुँचे हुए को परमसन्त कहते हैं। यहाँ काल की पहुँच नहीं है। वह अकाल पुरुष है जहाँ करोड़ों सूर्यों का प्रकाश है, ऐसा सन्तों ने कहा है। यहाँ शब्द नहीं है, केवल प्रकाश और महाप्रकाश है, जो सहज समाधि के साथ सम्बन्ध रखता है।
सन्तों ने भी कहा है -
अकाल पुरुष की देह में, कोटिक बिशन महेश ।
कोट इन्द्र ब्रह्मा केते, रवि शशि कोट जलेश ॥
भक्त पीपा जी की बाणी है -
जो ब्रह्मण्डे सोई पिडे जो खोजै सो पावै ॥
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होइ लखावै ॥
गुरुवाणी
अर्थ:-जिन महापुरुषों ने अपने अन्तर में रूहानी कमाई करके समस्त ब्रह्मांडों को अपने अन्तर में पाया, यह उनकी वाणी है कि बाहर जितना भी ब्रह्मांड है वह सब हमारे शरीर के अंदर है। भक्त पीपा जी कहते हैं यह परमतत्व है जो सद्गुरु के रूप में मालिक आप दरसाता है।
सन्त महापुरुषों अथवा ईश्वर के अवतारों की महिमा और उनके गूढ़ रूहानी रहस्यों को वही जान सकता है, जिसने इस मार्ग की कमाई की होती है। संसारी जीव बेचारे जो मन और माया के अधीन रहते हैं, वे सत्पुरुषों तथा अवतारों के चरित्रों तथा भेदों को क्या जान सकते हैं।
श्रीकृष्ण चन्द्र महाराज जी के जमाने की एक छोटी सी कथा है जो यहाँ लिख देना उचित मालूम होता है श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज को लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। उन अनेक नामों में से एक नाम उनका माखनचोर भी है क्योंकि वे बाल अवस्था में ग्वालों के साथ मिलकर घरों से माखन की चोरी किया करते थे। एक ग्रन्थकार ने इस कथा को पंजाबी कविता में बन्द करके 'माखनचोर लीला' का नाम दिया है। वह इस प्रकार है-
ग्वाल बालाँ कठियाँ करके, घर विच सद बहाया ।
छिक्के हेठां आप खलोता, ऊपर ग्वाल चढ़ाया ।
वेखन कारण माता दे, बलदेव नें बाहर ठहराया ।
इतने नूँ कम करदी करदी, माता बाहरों आई ।
झटपट समझ गई अज चोरां, अन्दर चोरी लाई ।
हौले हौले टुर पई ओथों, इक छड़ी चुक लयाई ।
भजो भजो माता आ गई, ग्वाला भाजड़ पाई ।
भज गए सब निक्के वडे, हथ कृष्ण इक आया ।
हथ विच सी मक्खण दा पेड़ा, झट ओह मुँह विच पाया।
ठोडी पकड़ के पुछिया माता, मुँह विच की लुकाया ।
बोले चाले मँह तो कुछ नहीं, सिर चा हिलाया ।
गुस्से दे विच माता ने, इक थप्पड़ चुक लगाया ।
खुलया मुँह ते वेखया विचों, कुल ब्रह्माण्ड समाया ।
भक्तियोग क्या है ?
प्रसंग चला हुआ है सन्तों के अवतारों का जिन्होंने कलियुग में प्रकट होकर अभ्यास के कठिन मार्ग को सुगम बना दिया है और ब्रह्मांड से आगे दयाल देश धुरधाम तक का मार्ग भी दर्शाया। इसके लिए गुरुभक्ति और प्रेमाभक्ति का सरल प्रवाह भी चलाया। इसी कारण सन्तों के मार्ग को भक्तियोग का नाम दिया गया है। भक्ति की बरकत यह है कि वह योग के साथ मिलकर योग से प्राप्त शक्ति की रक्षा करती है वरन् भक्ति से हीन अभ्यासी प्राय: ऋद्धि सिद्धियों में फंसकर ही रह जाता है।
ये सन्त ही हैं जो जिजासु को अपनी चरण शरण के सहारे इस सूक्ष्म माया से बचाते हैं। क्योंकि सन्त सद्गुरु जो जीवों के उद्धार के लिए संसार में आते हैं, उनको इस महान् कार्य की पूर्ति के लिए धुरधाम से पूरे अधिकार मिले होते हैं। जब जीव उनकी शरण में पहुँच कर सेवा भक्ति से उनकी प्रसन्नता का पात्र बन जाता है, तब वे महापुरुष उसे निहाल कर देते हैं। जन्म-जन्मान्तरों तक होने वाली कठिन कमाई का फल उसे तत्काल मिल जाता है। यह उनकी संगत की बरकत होती है। इसलिए सन्तमत भक्तियोग और विशेषकर वक्त के गुरु की भक्ति पर जोर देता है।
भगवान् श्रीराम त्रेतायुग के अवतार थे। वे जो उद्देश्य लेकर संसार में आए थे, उन्होंने उसको पूरा किया। धरती से राक्षसों का बोझ उतारा, गऊ-ब्राह्मण की रक्षा की, ऋषि-मुनियों तथा देवताओं का भय दूर किया, राम-राज्य हो गया और सब लोग सुख का जीवन व्यतीत करने लगे। परन्तु रूहानी विषय में उन्होंने भी अयोध्यावासियों को उपदेश करते हुए गुरु की ज़रूरत पर इशारा दे दिया क्योंकि रूह का कार्य धुर से ही गुरु के हाथ में है, दूसरा कोई भी इसे कर नहीं सकता। यह प्रसंग आगे आएगा।
अब पाठकों को फिर वहीं पर आ जाना चाहिए जहाँ पर श्रीराम भरत का संवाद चल रहा है और भगवान भरत जी को दुर्जनों के लक्षण समझा रहे हैं कि ऐसे खल पुरुष सतयुग, त्रेता में तो नहीं थे परन्तु द्वापर में कुछ उत्पन्न होकर कलियुग में गिनती से भी बाहर हो जाएँगे। यह है कलियुग का अन्धेरा पहलू। लेकिन, कलियुग के रोशन पहलू को भी पाठकों ने समझ लिया होगा, जिसका वर्णन ऊपर किया गया है। अब श्री भगवान के वचनों को आगे और सुनिये जो भरतजी के साथ हो रहे हैं।
परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥ निर्णय सकल पुराण वेदकर ।
कहेउँ तात जानहिं कोविद नर ।। नर शरीर धरि जे पर पीरा ।
करहिं ते सहहिं महा भवभीरा ॥ करहिं मोहवश नर अघ नाना ।
स्वारथरत परलोक नसाना ॥ कालरूप में तिनकहँ भ्राता ।
शुभ अरु अशुभ कर्म फल दाता ।। अस विचारि जे परम सयाने ।
भजहिं मोहिं संसृति दुख जाने ॥ त्यागहिं कर्म शुभाशुभदायक ।
भजहिं मोहिं सुर नर मुनिनायक ॥ सन्त असन्तन के गुण भाखे ।
ते न परहिं भव जिन लखि राखे ।
सन्तों और दुष्ट पुरुषों के गुण तथा स्वभाव को वर्णन करते हुए श्रीराम जी साथ ही अपने अनुभव की बात भी भरत जी को समझाते हैं। हे भ्राता! पराये हित के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है और दूसरे को पीड़ा पहुँचाने के समान और कोई पाप नहीं है। ऐसा सब वेद पुराणों ने निर्णय किया है। हे तात! इस बात को सज्जन पुरुष ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जान सकता।
यहाँ पर इस प्रसंग का भी निर्णय कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि पराया हित भी दो प्रकार का है-एक शारीरिक, दूसरा आत्मिक या रूहानी। हमारे शरीर का हित चाहनेवाले और प्यार करनेवाले तो सांसारिक सम्बन्धी हैं। शारीरिक हित की समझ रखने वाले अथवा उसकी मदद करने वाले तो आम लोग भी होते हैं। दुनिया में अक्सर इसी को पराया हित समझा जाता है परन्तु रूहानी हित करनेवाले संसार में केवल संत अवतार ही हुआ करते हैं अथवा हमारी रूह के साथ हित और प्यार रखने वाले संत सद्गुरु ही हैं।
अत: शारीरिक सहायता संसारी सम्बन्धियों से मिलती है और रूह की सहायता सन्त सद्गुरु करते हैं लेकिन असल सहायता रूह की ही समझनी चाहिए, क्योंकि शरीर की सहायता कोई कितनी करेगा और कब तक करेगा। कारण यह कि पहले तो शरीर के होते हुए ही सम्बन्धी साथ छोड़ जाते हैं। अगर शरीर तक निभाएँ भी सही तो शरीर के समाप्त होने पर उनका हित प्यार भी समाप्त हो जाता है। लेकिन रूह के हितैषी तो ऐसा नहीं करते, वे तो शरीर छूटने के पश्चात् भी रूह के साथ रहते हैं। इसलिए शरीर के साथी कच्चे और रूह के साथी पक्के मित्र हैं। गुरुबाणी में कहा है:
ओइ जीवंदे बिछुड़हि ओइ मुइआ न जाही छोड़ि ॥
भरत जी को उपदेश करते हुए श्री भगवान् यह कह रहे हैं कि हे भ्राता! मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरे की आत्मा को दुःख देते हैं भाव दूसरे की आत्मा को नरकगामी बनाते हैं, वे भवसागर में पड़ कर जन्म-मरण के दु:खों को सहते हैं। हे भाई! मोह और अज्ञान के वश होकर मनुष्य अनेक पाप करते हैं और निज स्वार्थ के हेतु अपना परलोक नाश कर लेते हैं।
ऐसे प्राणियों के लिए मैं ही काल रूप हूँ; अथवा शुभ और अशुभ कर्मों का फल देनेवाला न्यायकारी ईश्वर हूँ। ऐसा विचारकर जो बुद्धिमान् पुरुष हैं वे संसार को दुःखरूप जान कर मेरा भजन करते हैं। शुभ और अशुभ दोनों कर्मों के परिणाम से ऊपर उठकर सदा मेरे भजन भक्ति में लीन रहते हैं।
ईश्वर के दो स्वरूपएक निर्गुण निराकार, दूसरा सगुण साकार
ऊपर किये गए श्री भगवान् के कथन अनुसार कि ऐसे प्राणियों के लिए मैं ही काल रूप हूँ, कुछ वचन याद आ गये हैं जो कभी अपने श्री गुरु महाराज जी श्री दूसरी पातशाही जी के चरण कमलों में बैठकर उनके मुखारविन्द से सुने गये थे। श्री गुरु महाराज जी ने फरमाया था ईश्वर के दो स्वरूप हैं, एक निर्गुण निराकार, दूसरा सगुण , यानि साकार, मनुष्य रूप। ये दोनों स्वरूप ईश्वर के हैं।
इसका छुटकारा जब भी होगा दया और बख्शिश से ही होगा और दया व बख्शिश करने वाला ईश्वर का साकार रूप है। भाव यह कि श्री भगवान राम के कथन के अनुसार निराकार ईश्वर न्याय कारी अर्थात् जीवों को उनके पाप पुण्य के अनुसार फल देनेवाला है और साकार स्वरूप ईश्वर दयालु यानि बख्श देनेवाला है।
दोहा
जीवनमुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरिकथा न करहिं रति, तिन के हिय पाषान।।
साकार रूप भगवान के चरित्र हैं, कथाएँ हैं, सत्संग हैं और भक्तों के साथ भक्ति की अनेक प्रकार की लीलाएँ हैं, जिनको पढ़ने सुनने से जिज्ञासु के हृदय में वैराग्य और प्रेम की लहरें उठने लगती हैं जो उसकी सुरति को शुद्ध बनाकर ऊपर को ले उड़ती हैं। जैसे दो परों की सहायता से पंछी आकाश में उड़ जाता है ऐसे ही वैराग्य और प्रेम के परों की सहायता से सुरति स्वाभाविक ही अपने निजधाम की ओर उड़ने लग जाती है।
यह सब महिमा भगवान के साकार स्वरूप सन्त सद्गुरु की है जो संसार में प्रकट हो कर जीवों को भक्तिमार्ग पर चलने की शिक्षा और सहायता देते हैं। इसलिए जो विचारवान सज्जन पुरुष हैं वे प्रेमभक्ति को विशेषता देते हैं बल्कि भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने अरण्यकांड में लक्ष्मण जी को उपदेश करते हुए अपने श्री मुख से नीचे लिखी चौपाई में भक्ति की विशेषता स्पष्ट की। है और साथ ही यह भी फरमाया है कि भक्ति कितनी अमूल्य वस्तु है और कहाँ से प्राप्त होती है ?
भक्ति कितनी अमूल्य वस्तु है और कहाँ से प्राप्त होती है ?
चौपाई
धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद बेद बखाना ॥ जा ते बेगि द्रवौं मैं भाई ।
सो मम भक्ति भक्त सुखदाई ॥ सो स्वतन्त्र अवलम्ब न आना ।
तेहि आधीन ज्ञान विज्ञाना || भक्ति तात अनुपम सुख मूला ।
मिलै जु सन्त होहिं अनुकूला ॥
अर्थ:-धर्म से वैराग्य पैदा होता है और योग से ज्ञान तथा वेदों में ज्ञान को मोक्षप्रद बतलाया गया है लेकिन हे भाई। जिससे में जल्दी प्रसन्न होता हूँ वह परम सुखदाई मेरी भक्ति है जो कि स्वतन्त्र है, उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं। ज्ञान विज्ञान आदि सब उसके आधीन है। यह भक्ति अनुपम सुखों की खान है लेकिन मिलती तभी है जबकि सन्त अनुकूल हो जाएँ यानि वे जिस पर - प्रसन्न हो जाएँ वही भक्ति को पा सकता है। इसलिए कहा गया है कि ऐसी अनमोल प्रेम-भक्ति को पाने के लिए जो लोग यत्न नहीं करते अथवा जो लोग सन्तों के सत्संग और हरि कथा में दिल नहीं लगाते उन के हृदय पत्थर के समान समझने चाहिये।
यहाँ पर एक बात विचारने योग्य और भी मिल जाती है। कहा जाता है कि साकार ईश्वर एकदेशी है और निराकार ईश्वर सर्वदेशी तथा सर्वव्यापक है। यह सत्य है। इसके मानने में किसी को इनकार नहीं हो सकता परन्तु साथ ही इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि जिनके अपने अन्दर इष्टदेव का ध्यान (तसव्वर) दृढ़ हो जाता है, उनके लिए एकदेशी भगवान भी सर्वदेशी बन जाता है। क्योंकि जब जिज्ञासु के अन्दर साकार मनुष्य रूप भगवान् का ध्यान परिपक्व हो जाता है तो उस को हर प्राणीमात्र तथा कण कण में अपना प्रीतम ही दिखाई देने लगता है।
दशम पातशाही जी महाराज श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब के जमाने की एक कथा है। शत्रु के साथ युद्ध हो रहा था। गुरु महाराज की सेना के सिपाही शत्रु को जब मूर्छित करते थे तो इसी सेना का एक सिख सिपाही जिस का नाम भाई कन्हैया जी था, उन मूर्छित हुए शत्रुओं के - मुंह में पानी डालकर उनकी घबराहट को दूर करता और उनको सचेत बनाता था। इस पर सिखों ने गुरु महाराज के चरणों में शिकायत की कि भाई कन्हैया जी ऐसा करते है।
गुरु महाराज ने भाई कन्हैया को बुलाकर पूछा-भाई कन्हैया! आपकी शिकायत आई है, क्या तुम ऐसा करते हो? आगे से भाई कन्हैया ने आँखों में जल भरकर हाथ जोड गुरु के चरणों में सिर निवाय विनय की-दीनदयाल! में किसी शत्रु के मुँह में पानी नहीं डालता और न ही मुझे कोई शत्रु दिखाई देता है। जिस समय मैं पानी पिला रहा होता हूँ, उस समय मुझे यह दिखाई देता है कि आपको प्यास लगी है और मैं आपको पानी पिलाने की सेवा कर रहा हूँ। भाई कन्हैया जी की ऐसी वाणी सुन कर गुरु महाराज की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। उस प्रसन्नता में जो आपने वचन किये और उससे पहले जो भाई कन्हैया जी ने अपने विचार श्री चरणों में रखे, इनको एक ग्रन्थकार ने इस प्रकार लिखा है-
तैनूँ पिया पिलावा पाणी सिर मेरे दे साईं ।
तर्क अतुर्क न दिसदा मैंनें तूं सारे दिस आईं ।
पाणी नाल मलहम भी रखीं लोड पई ते लाईं ॥
प्रसन्न होकर फरमाया, ऐ भाई कन्हैया! पहले तो आप पानी पिलाते हो-लो, यह एक मरहम पट्टी की डब्बी भी ले लो और जहाँ जरूरत समझो. साथ ही मरहम पट्टी भी कर दिया करो। हम आप की ऐसी अवस्था पर बहुत खुश हैं।
श्री राम भरत संवाद चल रहा है। भगवान् कहते हैं हे तात! मैंने सन्तों और असन्तों के लक्षण तुम से कहे हैं। जिन्होंने इन लक्षणों को समझ लिया है, वे असन्तों अर्थात् दुर्जन पुरुषों की संगति से बचकर सदा सन्तों की संगति में रहते और उन्हीं के अनुसार बर्तते हैं। ऐसे प्राणी संसार के बन्धनों से छुट जाते हैं।
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