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भगवान् विष्णु को ऋषि द्वारा मिले श्राप को श्रीराम प्रभु के रूप में पूर्ण करना। To fulfill the curse received from the sage to Lord Vishnu in the form of Shri Ram Prabhu.

shri ram ji


बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग के अन्तर्गत प्रसंग चल रहा है ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी का - जिसमें आगे वर्णन हो रहा है भगवान् श्री राम तीर्थयात्रा का 
Of Lord Shri Ram Pilgrimage:

भगवान् वाल्मीकि जी अपने महान शिष्य भारद्वाज जी को श्री राम -वशिष्ठ संवाद रूप आत्म - बोधज्ञान सुना रहे हैं।  हे भारद्वाज ! यह मोक्ष उपाय आत्म - ज्ञान पुनः पुनः विचारने योग्य है और आत्म - बोध का परम कारण है।  इसे आदि से अंत पर्यन्त सुनो।  जैसे राम जी इस आत्म - ज्ञान को पाकर जीवन्मुक्त हो विचरे हैं , वही आत्म - ज्ञान तुम भी ग्रहण करो। 

श्रीराम और अन्य भाइयों का विद्याध्ययन हेतु गुरुकुल निवास पूर्ण हुआ।  वे सब गुरु वशिष्ठ जी से आदरपूर्वक विदा होकर घर आ गए और सुखपूर्वक रहने लगे।  एक दिन रामजी ने अध्ययनशाला और आत्म - विद्या पर विचार करते हुए सम्पूर्ण दिवस आत्म - मन्थन में व्यतीत किया। इसी प्रकार विचार - मग्न थे कि उनके मन में तीर्थयात्रा का संकल्प उत्पन्न हुआ। इस संकल्प को लेकर वे अपने प्रजापालक पिता दशरथ जी के पास आये। जैसे हंस सुन्दर कमल को ग्रहण करे , वैसे ही उन्होंने उनके चरण पकडे।  जैसे कमल के फूल के नीचे कोमल पंखुड़ियां होती हैं और उन पंखुड़ियों सहित कमल को हंस पकड़ता है , वैसे ही दशरथ जी की अंगुलियों को उन्होंने पकड़ लिया और बड़े कोमल व मधुर स्वर में बोले , हे पिता ! मेरा चित्त तीर्थ और ठाकुरद्वारों को चाहता है।  आप आज्ञा दीजिये तो मैं दर्शन कर आऊँ।  मैं तुम्हारा प्रिय पुत्र हूँ। मैंने आपसे पहले कभी कुछ नहीं माँगा।  यह प्रार्थना मैंने अभी की है , आप इसे अस्वीकार न करना, क्योंकि त्रिलोकी में ऐसा कोई नहीं है जिसका मनोरथ इस घर से सिद्ध न हुआ हो। इसलिए मुझको भी कृपाकर आज्ञा दीजिये। 

राजा दशरथ द्वारा श्री राम जी को भाइयों सहित तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए आज्ञा देना 
King Dasharatha ordering Shri Ram to go on pilgrimage along with his brothers

इतना कहकर वाल्मीकि जी बोले , हे भारद्वाज ! जिस समय राम जी ने यह प्रार्थना की उस समय गुरु वशिष्ठ जी पास ही बैठे थे।  उन्होंने भी श्री रामजी की विनय सुनकर राजा दशरथ जी से कहा , हे राजन ! इनका चित्त इस समय उपराम है।  रामजी को आज्ञा दो , वे तीर्थ दर्शन कर आवें।  इनके साथ यथावश्यक धन - द्रव्य , रथ , सवारी , मन्त्री और ब्राह्मण आदि भी दीजिये ताकि विधिपूर्वक स्नान , दर्शन और पूजन करें।  तब महाराज दशरथ ने श्री राम जी की विनय स्वीकार कर ली और सभी प्रकार की व्यवस्था करके तीर्थाटन की आज्ञा दे दी। तब शुभ मुहूर्त दिखाकर उन्होंने घर से चलने की तैयारी की।  जब वे चलने लगे तो पिता और माता के चरणों को स्पर्श किया। सबको कण्ठ लगाकर और भावुक होकर विदाई ली।  इस प्रकार सबसे मिलकर लक्ष्मण आदि भाई , मन्त्री और ब्राह्मण सबको साथ लिया।  इस प्रकार बहुत सा धन , द्रव्य और सामग्री लेकर रथों में सवार हुए। 

इस प्रकार जब सम्पूर्ण समूह गृह के बाहर निकला तो वहाँ के लोगों , भद्र महिलाओं और युवतियों ने रामजी के ऊपर फूलों और कलियों की मालाओं की वर्षा की और राम जी की छवि अपने - अपने हृदय में धारण कर ली। इसी प्रकार रामजी वहाँ से गंगा , यमुना , सरस्वती आदि तीर्थों में विधिपूर्वक स्नान कर ब्राह्मणों और निर्धनों को दान देते हुए पृथ्वी के चारों ओर पर्यटन करते रहे। पृथ्वी के उत्तर दक्षिण , पूर्व और पश्चिम में सभी स्थानों पर तीर्थ स्नान और दान किया। सुमेरु और हिमालय पर्वत पर भी गये और शालिग्राम , बद्री , केदार आदि में स्नान और दर्शन किये।  ऐसे ही सब तीर्थस्नान , दान , तप ,ध्यान और विधि संयुक्त यात्रा करते करते एक वर्ष बीत गया।  तदनन्तर सुखपूर्वक अपने नगर महलों में लौट आये। 

भगवान् श्रीराम जी का तीर्थ यात्रा कर वापस अयोध्या आगमन 
Return of Lord Shri Ram to Ayodhya after pilgrimage

वाल्मीकि जी बोले , हे भारद्वाज ! जब रामजी यात्रा करके अपनी अयोध्यापुरी में आये तो नगरवासी पुरुष और महिलाओं ने फूल और कलियों की वर्षा की।  सभी बड़े उत्साह पूर्वक जय - जय शब्द मुख से उच्चारने लगे।  जैसे इन्द्र का पुत्र स्वर्ग में आता है वैसे ही श्रीरामचन्द्र जी अपने घर में आये। श्रीराम जी ने पहले वशिष्ठ जी और फिर राजा दशरथ को प्रणाम किया और सब सभा के लोगों से यथायोग्य मिलकर अन्तःपुर में आये और कौशल्या आदि माताओं को प्रणाम किया तथा भाई , बंधु  व मित्रों आदि से मिले।  हे भारद्वाज ! इस प्रकार रामजी के आने का उत्सव सात दिन तक होता रहा।  उस समय में कोई भी मिलने आवे , रामजी उससे मिलते और जो कोई कुछ लेने आवे , दान पुण्य करते थे।  इस उत्सव में अनेक बाजे बजते रहे और भाट आदि बंदीजन स्तुति करते रहे। 

इस समय रामजी का नियमानुसार यह आचरण रहा कि वे प्रातःकाल उठकर स्नान संध्या आदि सत्कर्म करते फिर भोजन करते।  तदुपरांत भाई बंधुओं व मित्रों से मिलकर अपने तीर्थ की कथा और देवद्वार के दर्शन की वार्ता करते थे इसी प्रकार उत्साह सहित दिन रात बीतते रहे। 

श्रीराम जी की जगत के प्रति उपरति 
Shriram ji's dispassion from the world

एक दिन रामजी प्रातःकाल उठकर चन्द्रमा के समान तेज वाले अपने पिता राजा दशरथ के निकट गये।  उस समय वे मंत्रीगण और वशिष्ठ आदि के साथ सभा में बैठे थे। सभा में श्रीराम जी ने गुरु वशिष्ठ जी के साथ कुछ समय कथा वार्ता की।  उन्हें इस धर्म सभा में धर्म वार्ता करके बड़ी प्रसन्नता हुई।  उस समय रामजी की अवस्था सौलह वर्ष से कुछ महीने कम थी।  लक्ष्मण और शत्रुघ्न भाई भी साथ थे , पर भरत जी नाना के घर गये हुए थे। अतः उन्हीं के साथ नित चर्चा वार्ता और आत्म - चिंतन मनन करते - करते बहुत दिन बीत गए।  

अब श्री रामजी के मन में ऋषि शाप को अंगीकार कर जनसामान्य को आत्म - बोध का ज्ञान भंडार प्रदान करने हेतु विरक्ति की अज्ञ लीला आरम्भ करने का संकल्प उत्पन्न हुआ।

 
How did Shri Ram's resolve to accept the curse of the sage arose in the mind of Shri Ram to start the leela of ignorance of non-attachment in order to provide a storehouse of knowledge of self-realization to the common man?

एक दिन रामजी बाहर से अपने अन्तःपुर में आकर बहुत समय तक आत्म - चिंतन करते रहे।  आत्मा की नित्यता और संसार की नश्वरता पर बहुत समय तक आपके मन में विचारधारा बहती रही।  इस प्रकार विचार करते - करते संसार से उपराम हो रामजी शोकमग्न हो गए। उनकी संसार से उपरामता नित्य ही बढ़ती गयी।  इस प्रकार हे भारद्वाज ! राजकुमार अपनी सब चेष्टा और इन्द्रियों के रससंयुक्त विषयों को त्याग बैठे। जैसे शरतकाल में ताल निर्मल होता है वैसे ही इच्छारूपी मल से रहित उनका चित्तरूपी ताल निर्मल हो गया , परन्तु दिन - प्रतिदिन शरीर निर्बल होता गया।  वह जहाँ बैठें वहीँ हाथ पर चिबुक धर के चिंतनयुक्त बैठे रह जावें।  जब टहलते तो मन्त्री बहुत कहें कि हे प्रभो ! यह कुछ खाने - पीने का समय है  कुछ उत्तर न दें।  भाव यह कि बोल - चाल और पहनने सजने की जो क्रियाएँ थीं वे सब उन्हें नीरस हो गयी।  तब लक्ष्मण और शत्रुघ्न भी रामजी को शोक संयुक्त देखकर विरस और शोकाकुल रहने लगे। 

राजा दशरथ यह वार्ता सुनकर रामजी के पास आये तो क्या देखा कि रामजी कृशकाय हो गये हैं। राजा इस चिंता से आतुर होकर कहने लगे कि हाय ! मेरे पुत्र की यह क्या दशा हो गयी है। तब उन्होंने रामजी को गोद में बैठाया और कोमल सुन्दर शब्दों से पूछने लगे कि हे पुत्र ! तुमको क्या दुःख है जिससे तुम शोकवान हुए हो ? रामजी ने कहा कि हे पिताजी ! हमको तो कोई दुःख नहीं।  ऐसा कहकर चुप हो रहे। 

श्रीराम जी को चिन्तनयुक्त देखकर राजा दशरथ और सब रानियों का शोकाकुल होना 
Seeing Shri Ram ji worried, King Dasharatha and all the queens started getting sad.

जब इसी प्रकार कुछ और दिन बीते तो राजा और सब रानियां बड़ी शोकाकुल हुई। राजा राजमंत्रियों से मिलकर विचार करने लगे कि क्या कारण है जो मेरे पुत्र शोकाकुल रहते हैं।  तब राजा दशरथ ने महामुनि वशिष्ठ जी से पूछा कि हे मुनीश्वर ! मेरे पुत्र शोकाकुल क्यों रहते हैं ? वशिष्ठ जी ने कहा - राजन , जैसे पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश सभी महाभूत अल्पकार्य में विकारवान नहीं होते , जब जगत उत्पन्न और प्रलय होता है तब विकारवान होते हैं।  हे राजन ! तुम शोक मत करो।  रामजी एक महान आत्मा हैं , वे किसी अर्थ के निमित्त ही शोकवान हुए होंगे।  इसका उचित समाधान हो जायेगा , तदनन्तर इनको सुख मिलेगा और इनके आचरण से सबको आत्म - जागृति मिलेगी। 


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