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विषयों में कुछ भी सुख नहीं है, दुःख बहुत हैं। There is no happiness in desires, there are many sorrows.

vashishth ji,


बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेणवैराग्यम्


राजा दशरथ के दरबार में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी और महामुनि विश्वामित्र जी तथा अनेक देवर्षि, राजर्षि व तपस्वी साधु अपने-अपने आसन पर विराजित हैं। श्री राम जी सर्वज्ञ होकर भी गुरुजनों के सम्मुख एक जिज्ञासु और मुमुक्षु बन कर यहाँ उपस्थित हुए हैं।


गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने जब राम जी से कहा कि तुम अपनी उपरामता से उत्पन्न चित्त की खिन्न अवस्था का वृत्तांत विस्तार से वर्णन करो। तब मोहिनीमूर्ति कमल नयन श्री रामजी हाथ जोड़ कर अति विनम्र और मधुर वाणी में बोले, हे भगवन् ! जो वृत्तान्त है सो आपके सम्मुख क्रम से निवेदन करता हूँ


भगवान् श्री राम जी के मन में क्या विचार उत्पन्न हुए ?


मैं राजा दशरथ के घर में उत्पन्न होकर क्रम से बड़ा हुआ और गुरुकुल में ब्रह्मचर्यादि व्रत धारण करते हुए विद्याध्ययन किया। तदनन्तर घर में आया तो मेरे हृदय में विचार हुआ कि मैं तीर्थाटन करूँ और देवद्वारों में जाकर देवों के दर्शन करूँ।


पिता की आज्ञा लेकर मैं तीर्थ यात्रा को गया और गंगा आदि पृथ्वी पर सम्पूर्ण तीर्थों में विधिसंयुक्त स्नान, दर्शन व पूजा करके यहाँ आया। तीर्थाटन और देवदर्शन पर विचार करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार मेरे हृदय में जगत् मिथ्या विषय पर एक विचार उत्पन्न हआ जो मेरे हृदय को अपनी ओर खींच ले गया। संसार सुखनिषेध वर्णन-


यह जो संसार का प्रवाह है, यह क्या सुख का हेतु हो सकता है?


॥ श्लोक ॥


किं नामेदं वत् सुखं येयं संसारसंततिः।

जायते मृतये लोको म्रियते जननाय च॥

अस्थिराः सर्व एवेमे सचराचरचेष्टताः।

आपदां पतयः पापा भावा विभवभूमयः॥


अर्थ-यह जो संसार का प्रवाह है, यह क्या सुख का हेतु हो सकता है? अर्थात् इस विस्तृत संसार से कभी सुख नहीं मिल सकता, क्योंकि इसमें जो जीव उत्पन्न होते हैं और जो मरते हैं, उनको कुछ भी सुख नहीं मिलता। चर और अचर जीव प्राणियों के लिए वैभवकाल में मिलने वाले जितने भोग पदार्थ हैं, ये सब-के-सब अस्थिर और क्षणिक हैं और पाप व आपदाओं के मूल हैं।


श्री राम जी ने गुरु वशिष्ठ जी से कहा-हे मुनीश्वर! यह सोचकर मुझे प्रतीत होने लगा कि राज्य करने से क्या है, भोग से क्या है और जगत क्या है? यह सब तो भ्रममात्र है। भोगों की वासना मूर्ख ही रखते हैं। यह स्थावर, जंगम जगत् सब अस्थिर है। संसार में जितने कुछ पदार्थ हैं, वे सब मन से उत्पन्न होते हैं और यह मन भ्रममात्र है। यह अनहोता मन ही दुःखदायी बना हुआ है।


मन जिन पदार्थों की ओर सत्य जानकर दौड़ता है और सुखदायक जानता है, वे सुख तो मृगतृष्णा के जलवत् हैं। जैसे मृगतृष्णा के जल को देखकर मृग दौड़ते हैं और दौड़ते-दौड़ते थक कर गिर पड़ते हैं, तो भी उनको जल प्राप्त नहीं होता। वैसे ही मूर्ख जीव संसार के पदार्थों को सुखदायी जानकर भोगने का यत्न करते हैं परंतु शान्ति को प्राप्त नहीं कर पाते।


भोग और जगत् सब भ्रममात्र हैं।


श्री राम जी कथन कर रहे हैं हे मुनीश्वर! इन्द्रियों के भोग हैं जिनका मारा हुआ जीव जन्म-मरण में गिरता है और जन्म से जन्मान्तर पाता है। भोग और जगत् सब भ्रममात्र हैं। उनमें जो आस्था करते हैं वे महामूर्ख हैं। मैं विचार करके ऐसा जानता हूँ कि सब कुछ आगमापायी है अर्थात् सब पदार्थ आते भी हैं और जाते भी हैं। इससे जिस पदार्थ का नाश न हो वही पदार्थ पाने योग्य है। इसी कारण मैंने भोगों को त्याग दिया है।


भगवान् श्री राम जी ने भोगों का त्याग क्यों किया ?


हे मुनीश्वर! जितने पदार्थ सम्पदारूप भासते हैं वे सब आपदा हैं; इनमें रञ्चक भी सुख नहीं है। जब इन्द्रियों के भोग प्राप्त होते हैं तब जीव राग द्वेष से जलता है और जब नहीं प्राप्त होते तब तृष्णा से जलता है। जब इनका वियोग होता है तब कण्टक की न्याई मन में चुभते हैं। इसलिए भोग दुःखरूप ही है। जैसे पत्थर की शिला में छिद्र नहीं होता वैसे ही भोगरूपी दुःख की शिला में सुखरूप छिद्र नहीं होता।


हे मुनीश्वर! विषय की तृष्णा में जीव बहुत काल से जलता रहा है। जैसे हरे वृक्ष के छिद्र में अग्नि धरी हो तो धूआँ होकर थोड़ा-थोड़ा जलता रहता है वैसे ही भोगरूपी अग्नि से मन जलता रहता है। विषयों में कुछ भी सुख नहीं है, दुःख बहुत हैं, इसलिए इनकी इच्छा करनी मूर्खता है। जैसे खाई के ऊपर तृण और पात होते हैं और उससे खाई आच्छादित हो जाती है उसको देखकर हिरण उसमें कूदता है और दुःख पाता है। वैसे ही मूर्ख भोग को सुखरूप जानकर भोगने की इच्छा करता है और जब भोगता है तब जन्म जन्मान्तर तक खाई में जा पड़ता है तथा दुःख पाता है।


जिस पुरुष को सदा भोग की इच्छा रहती है वह मूर्ख और जड़ है।


श्री राम जी गुरु वशिष्ठ जी से कहते हैं-हे मुनीश्वर! भोगरूपी चोर अज्ञानरूपी रात्रि में आत्मा रूपी धन लूट ले जाता है। तब उसके वियोग से महादु:खी और दीन हो जाता है। जिस शरीर का अभिमान करके यह मनुष्य यत्न करता है वह शरीर क्षणभंगुर और असार है। जिस पुरुष को सदा भोग की इच्छा रहती है वह मूर्ख और जड़ है। उसका बोलना और चलना भी ऐसा है जैसे सूखे बाँस के छिद्र में पवन जाता है और उसके वेग से शब्द होता है।

हे मुनीश्वर! जैसे थका हुआ मनुष्य मारवाड़ के मार्ग की इच्छा नहीं करता वैसे ही दुःखदायी परिणाम को देखकर मैं भोग की इच्छा नहीं करता।


(क्रमश:)


अथ वैराग्य-वाणी, संत चरणदास जी


॥ राग मंगल॥


चला चली जग ठाट अचल हरिनाम है।

माल मुलक चलि जाय जाय राज धाम है॥

तेल फुलेल लगाय बहुत सुंदर गए।

नाना करते भोग सो भी नर न रहे।

तेल तमक और रूप जाय यौवन घना।

सकल बराती जाँय जाय दुलहनि बना॥

रोगी रोग अरु वैद्य जाय औषधि भले।

ज्योतिष पुस्तक टूटि बिनसि रज हो मिले॥

ज्ञानी पंडित पीर अधिक बेबस गले।

गौस कुतुब अब्दाल पैगंबर सब चले॥

एक के पीछे एक वहीर लगी चली।

नरपति सुरपति जाहिं अन्त वाही गली॥

ऋषि मुनि देवत सिद्ध योगेश्वर जाहिंगे।

जिन वश कीन्हीं मौत सो भी न रहेंहिंगे॥

पाँच तत्व गुण तीन नहिं ठहराहिंगे।

स्वर्ग मृत्यु पाताल सभी रलि जाहिंगे॥

धरती अंबर जाय जाय शशि भान है।

चरणदास शुकदेव दया लियो जान है॥


भावार्थ-सम्पूर्ण जगत् और इसकी रचना नश्वर है। मनुष्य, राजा, प्रजा, धनी, निर्धन, ऋषि, मुनि, देवी, देव सभी को एक दिन जगत् छोड़ना पड़ता है। मृत्यु सबके लिए निश्चित् है। एकमात्र प्रभु नाम सत्य और स्थिर है अत: नाम स्मरण करके अचल पद पाने का साधन करना चाहिए।


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