दरिद्रता
बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेणवैराग्यम्
राजा दशरथ के दरबार में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी और महामुनि विश्वामित्र जी तथा अनेक देवर्षि, राजर्षि व तपस्वी साधु अपने-अपने आसन पर विराजित हैं। श्री राम जी सर्वज्ञ होकर भी गुरुजनों के सम्मुख एक जिज्ञासु और मुमुक्षु बन कर यहाँ उपस्थित हुए हैं। गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने जब राम जी से कहा कि तुम अपनी उपरामता से उत्पन्न चित्त की खिन्न अवस्था का विस्तार से वृत्तांत वर्णन करो।
तब मोहिनीमूर्ति कमलनयन श्री रामजी ने हाथ जोड़ कर अति विनम्र और मधुर वाणी में अपने मन की अवस्था को सम्मुख रखकर वैराग्य की व्याख्या करना आरंभ किया। गतांक में इस जगत् की रचना
और भोग पदार्थों के सुखों की असारता का वर्णन किया। अब आगे श्रीराम जी कथन करते हैं
लक्ष्मीनैराश्य वर्णन
इयमस्मिन् स्थितोदारा संसारे परिकल्पिता।
श्रीर्मुने परिमोहाय सापि नूनं कदर्थदा।
अर्थ - हे मुनिश्रेष्ठ! इस संसार में धन सम्पत्ति स्थिर और विविध सुखों की हेतु होने के कारण उत्कृष्ट है, ऐसा मूढ़ व्यक्तियों ने ही मान रखा है। वस्तुत: वह न स्थिर है और न उत्कृष्ट ही है। यह लक्ष्मी तो नितांत अनर्थ देने वाली और मोह (अज्ञान) की हेतु है जिससे त्रयताप (भौतिक, दैविक और आत्मिक दुःख) ही जीव को प्राप्त होते हैं, सुख नहीं। लक्ष्मी जब संग्रहित होती है तो मोह पैदा करती है तथा जब नष्ट होती है तो क्लेश देती है।
भौतिक, दैविक और आत्मिक दुःखों का कारण क्या है ?
हे मुनीश्वर! लक्ष्मी (धन, सम्पदा, राज्य, वैभव, कंचन व कामिनी आदि) देखने मात्र ही सुन्दर हैं। जब यह आती है तब सद्गुणों का तो नाश ही कर देती है। जैसे विष की बेल देखने मात्र ही सुन्दर होती है और स्पर्श करने से मार डालती है, वैसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति होने से जीव आत्मपद से वंचित होकर महादीन हो जाता है।
जैसे किसी के घर में चिन्तामणि दबी हो तो उसको जब तक खोदकर वह नहीं लेता तब तक दरिद्र ही रहता है, वैसे ही जीव ज्ञान बिना महादीन हो रहता है और अज्ञान के कारण आत्मानन्द को नहीं पा सकता। लक्ष्मी आत्मानन्द में विघ्न करने वाली है। इसकी प्राप्ति से जीव अन्धा हो जाता है।
माया का रूप
हे मुनीश्वर! जब दीपक प्रज्वलित होता है तब उसका बड़ा प्रकाश दृष्टि में आता है और जब बुझ जाता है तब प्रकाश का अभाव हो जाता है पर काजल रह जाता है। इसी प्रकार जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब बड़े भोग भुगाती है और तृष्णारूपी काजल उससे उपजता रहता है और जब लक्ष्मी का अभाव होता है तब वासनारूपी धुआं पीछे छोड़ जाती है। उस वासना से जीव अनेक जन्म और मरण पाता है, कभी शान्ति नहीं पाता।
हे मुनीश्वर! जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, तब शान्ति के उपजाने वाले गुणों का नाश करती है। जब तक पवन नहीं चलती तब तक मेघ रहता है। जब पवन चलती है तो मेघ का अभाव हो जाता है। वैसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति होने से गुणों रूपी मेघ का अभाव होता है और गर्वरूपी मेघ की उत्पत्ति होती है।
संसार में दुर्लभ क्या है ?
हे मुनीश्वर! जो शूर होकर अपने मुख से अपनी बड़ाई न करे, सो संसार में दुर्लभ है और जो सामर्थ्यवान होकर किसी की अवज्ञा न करे व सब में समबुद्धि रखे सो भी दुर्लभ है। वैसे ही लक्ष्मीवान् होकर शुभ गुणसम्पन्न हो सो भी अति दुर्लभ है।
दुखों की जड़ तृष्णा
तृष्णारूपी सर्प के विष के बढ़ाने के लिए लक्ष्मीरूपी दूध है, उसे पीते-पीते सर्प कभी नहीं अघाता। महामोहरूपी उन्मत्त हस्ती के फिरने के लिए लक्ष्मी पर्वत की अटवी है। इस अटवी में सदगुणरूप सूर्यमुखी कमलों के लिए लक्ष्मी रात्रि है और भोगरूपी चन्द्रमुखी कमलों के लिए लक्ष्मी चन्द्रमा है।
वैराग्यरूप कमलिनी का नाश करने वाली लक्ष्मी बरफ रूप है। ज्ञानरूपी चन्द्रमा को आच्छादन करने वाली लक्ष्मी धुंध है। मोहरूप उलूक के लिए लक्ष्मी मानो रात्रि है। दुःख रूप बिजली के लिए लक्ष्मी आकाश है। लोभ रूपी तृण-बेलि को बढ़ाने के लिए लक्ष्मी मेघ है। तृष्णारूप तरंग के लिए लक्ष्मी समुद्र है। मदरूप भँवर के लिए लक्ष्मी कमलिनी है। जन्म के दुःखरूपी जल के लिए लक्ष्मी गड्ढा है।
मनुष्य में शुभ गुण नष्ट होने का क्या कारण है ?
हे मुनीश्वर! देखने में यह लक्ष्मी सुन्दर लगती है परंतु वास्तव में यह दुख का कारण है। जैसे खड्ग की धार देखने में सुन्दर होती है और स्पर्श करने से नाश करती है वैसे ही यह लक्ष्मी विचार रूपी मेघ का नाश करने के लिए वायु है। हे मुनीश्वर! यह मैंने विचार करके देखा है कि इसमें कुछ भी सुख या सार नहीं है। सन्तोषरूपी मेघ का नाश करनेवाली लक्ष्मी शरत्काल है। मनुष्य में सदगुण भी तब तक ही दृष्टि में आते हैं जब तक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब शुभ गुण नष्ट हो जाते हैं।
लक्ष्मी के ये भोग मिथ्या हैं
हे मुनीश्वर! लक्ष्मी को ऐसी दुःखदायक जानकर इसकी इच्छा मैंने त्याग दी है। लक्ष्मी के ये भोग मिथ्या हैं, जैसे बिजली प्रकट होकर छिप जाती है वैसे ही लक्ष्मी भी प्रकट होकर छिप जाती है। जैसे ही जल शीतलता से हिम बनता है वैसे ही लक्ष्मी मनुष्य को जड़ सा बना देती है। इसको छलरूप जान कर मैंने त्याग दिया है।
संसार में रहने की युक्ति क्या है ?
इस प्रकार उक्त लक्ष्मीनैराश्य प्रकरण में भगवान श्री राम जी ने एक संसारी मनुष्य को यह दर्शाया है कि लक्ष्मी (कंचन व कामिनी) किस प्रकार से संसार की माया में उलझाने का काम करती है। इस लक्ष्मी का उपयोग करते हए इससे निर्लिप्त रहने की युक्ति संत सत्पुरुष बतलाते हैं।
(क्रमश:)
(शब्द-वैराग्य वाणी-संत चरणदास जी)
क्या दिखलावै शान यह कुछ थिर न रहेगा।
दारा सुत अरु माल मुलक का, कहा करै अभिमान।
रावण कुंभकरण हिरण्याकुश, राजा करण समान।
अर्जुन नकुल भीम से योद्धा , माटी हुए निदान।
छिन छिन तेरो तन छीजत है, सुन मूरख अज्ञान।
फिर पछतावै कहा होयगा, जब यम धेरै आन।
बिनशैं जल थल रवि शशि तारे, सकल सृष्टि की हान।
अजहूँ चेत हेत करि हरि सों, ताही की पहचान।
नवधा भक्ति साधु की संगति, प्रेम सहित कर ध्यान।
चरणदास शुकदेव सुमिर ले, जो चाहै कल्याण।
भावार्थ-सन्त चरणदास जी अपनी वैराग्यवाणी में कथन करते हैं-ऐ जीव, इस संसार की झूठी माया पर क्या गुमान करता है। एक दिन काल आकर तेरी काया और माया व इसके सब पदार्थ तुझ से छीन लेगा। इस संसार में बड़े-बड़े बलवान राजा और शूरवीर खाक में मिल गए। मानव जीवन के इस समय में हरि-परमेश्वर से प्रीत करले। सन्तों की संगति में आकर सत्संग, सेवा और सुमिरण करके अपना कल्याण कर ले। इसी में जीवात्मा की सद्गति है।
चरति चरतो भाग्य:।
जो चलने लगता है उसका भाग्य भी चलने
लगता है।
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- विषयों में कुछ भी सुख नहीं है, दुःख बहुत हैं। There is no happiness in desires, there are many sorrows.
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