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भगवान् श्री राम जी द्वारा माया के दुखों का वर्णन। Description of the miseries of Maya by Bhagwan Shri Ram ji.

maya se chhutkara


आत्मज्ञान

बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेणवैराग्यम्


राजा दशरथ के दरबार में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी और महामुनि विश्वामित्र जी तथा अनेक देवर्षि, राजर्षि व तपस्वी साधु अपने-अपने आसन पर विराजित हैं। श्री राम जी सर्वज्ञ होकर भी गुरुजनों के सम्मुख एक जिज्ञासु और मुमुक्षु बन कर उपस्थित हुए हैं। गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने जब राम जी से कहा कि तुम अपनी उपरामता से उत्पन्न चित्त की खिन्न अवस्था का विस्तार से वर्णन करो तब श्री राम जी अति विनम्रभाव में बोले-


लक्ष्मी दुःख वर्णनम्


एषा हि विषमा दु:खभोगिनां गहना गुहा।

घनमोहगजेन्द्राणां विन्ध्यशैलमहातटी।


अर्थ-अज्ञ लोगों ने जिस श्री (लक्ष्मी) को सुख की हेतु समझ रखा है, वह तो सर्पों की दुर्गम और भीषण गुफा है तथा महामोहरूपी हाथियों का विश्रामस्थल है। अत: यह लक्ष्मी महादुःखदायिमी और महामोह से आवृत्त करने वाली है।


मोहिनीमूर्ति कमलनयन श्री रामजी हाथ जोड़ कर अति मधुर वाणी में बोले-हे भगवन् ! हे मुनीश्वर! जैसे कमलपत्र के ऊपर जल की बूदें नहीं ठहरती वैसे ही लक्ष्मी भी क्षण भंगुर है। जैसे जल से तरंग उठकर नष्ट होती हैं वैसे ही लक्ष्मी भी वृद्धि पाकर नष्ट हो जाती है।


हे मुनीश्वर! पवन को रोकना कठिन है, पर उसे भी कोई रोकता है और आकाश का चूर्ण करना अति कठिन है, उसे भी कोई चूर्ण कर डालता है और बिजली का रोकना अति कठिन है सो उसे भी कोई रोकता है, परन्तु लक्ष्मी को कोई स्थिर नहीं रख सकता। जैसे शश (खरगोश) अपने सींगों से किसी को मार नहीं सकता और आरसी के ऊपर जैसे मोती नहीं ठहरता, जैसे तरंग की गाँठ नहीं पड़ती वैसे ही लक्ष्मी भी स्थिर नहीं रहती।


लक्ष्मी बिजली की चमक सी है, जो होती है और मिट भी जाती है। जो व्यक्ति लक्ष्मी पाकर अमर होना चाहे उसे अति मूर्ख जानना चाहिए। जो लक्ष्मी पाकर भोग की इच्छा करता है वह महा आपदा का पात्र है। उसका जीने से मरना श्रेष्ठ है। ऐसे जीने की आशा मूर्ख करते हैं। जैसे स्त्री गर्भ की इच्छा गर्भदुःख उठाने के निमित्त करती है वैसे ही भवबंधन में जीने की आशा पुरुष अपने नाश के निमित्त करते हैं।


आत्मज्ञान प्राप्त करने पर ही जीवन की सफलता

ज्ञानवान् पुरुष जिनकी परमपद में स्थिति है और उससे तृप्त हुए हैं, केवल उनका जीना सुख के निमित्त है। उनके जीने से ही औरों के कार्य भी सिद्ध होते हैं। उन्हीं का जीना चिन्तामणि की न्याई श्रेष्ठ है। शेष सब तो जीने का बोझ ढोते हैं।


हे मुनीश्वर! लक्ष्मी को पाकर जो अभिमान करता है वह मूर्ख है। जैसे बिल्ली चूहे को पकड़ने के लिये पीछे पड़ी रहती है वैसे ही भोगी जीवों को नरक में डालने के लिए लक्ष्मी घर में पड़ी रहती है। जैसे अंजली में जल नहीं ठहरता वैसे ही लक्ष्मी भी नहीं ठहरती। ऐसी क्षणभंगुर लक्ष्मी और शरीर को पाकर जो भोग की तृष्णा करता है वह महामूर्ख है। ऐसा मनुष्य मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ जीने की आशा करता है।


जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और जो आत्मपद से विमुख हैं, उनका जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है। ऐसे पुरुष पृथ्वी पर भार हैं। ऐसे जीने से तो वृक्ष, पक्षी, पशु का जीना भी श्रेष्ठ है जो कि दूसरों के बहुत से कार्य सिद्ध करते हैं। आत्म-पद से विमुख के लिए तो लक्ष्मी भी भार है।


आत्मबोध बिना विद्या भी व्यर्थ


हे मुनीश्वर! जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र भी उसको भाररूप है। जैसे अन्य भार होते हैं वैसे ही पढ़ने का भी भार है। जो पढ़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते, वे भी मूर्ख हैं। यह मन आकाश रूप है। यदि मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है।


हे मुनीश्वर! मनुष्य का जीना तो तभी श्रेष्ठ है जब वह आत्मपद को पा ले अन्यथा जीना व्यर्थ है। आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है। बिना अभ्यास के आत्म-पद भी नहीं मिलता। जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है। जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं। जिस ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्म हत्यारा है।


हे मुनीश्वर! जो मनुष्य पदार्थों को सत्य और सुखरूप जानकर उनका आश्रय लेता है, उनसे कदापि सुखी नहीं होता। जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़ कर पार उतरना चाहे तो पार नहीं उतर सकता वैसे ही माया का आश्रय लेकर तो डूबेगा ही।


हे मुनीश्वर! यह संसार इन्द्र धनुष की न्याई है। जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टिगोचर होता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है। इस प्रकार जगत् को असत् जानकर मैंने निर्वासनिक होने की इच्छा की है।


॥ शब्द वैराग्य वाणी-संत चरणदास जी॥


जानै कोइ संत सुजान, यह जग स्वप्ना है।

स्वप्नै लेना स्वप्नै देना, स्वप्नै निर्भय जै।

स्वप्नै राजा राज करत है, स्वप्नै योगी योग।

स्वप्नै दुखिया दुख बहु पावै, स्वप्नै भोगी भोग।

स्वप्नै शूरा रण में जूझै, स्वप्नै दाता दान।

स्वप्नै पिय संग पावक जरिया, स्वप्नै मान अपमान।

स्वप्नै ज्ञानी गुरुगम जागै, अपना रूप निहारि।

अज्ञानी सोवत स्वप्न में, डसै अविद्या नारि।

चरणदास शुकदेव चितावै, स्वप्ना सो सब झूठ।

अचरज समझ अगाध पुरानी, मौन गद्दी गहि मूंठ।


भावार्थ-यह संसार स्वप्न की रचना के समान है, अज्ञान से सत्य भासता है और इसके सुख-दुःख व मान-अपमान व जन्म-मृत्यु आदि द्वंदों में उलझा रहता है। गुरु उपदेश पर मनन करने और उस पर आचरण करने से आत्मज्ञान प्राप्त होता है और इस आत्मज्ञान से जग रचना का स्वप्न टूट जाता है और जीव नित्यमुक्त हो जाता है। आत्म बोध प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है।


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