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दुःख का कारण क्या है, और इससे मुक्ति का उपाय क्या है ?। What is the cause of sorrow and what is the solution to get rid of this?

vashishtha ji


दुःख का कारण क्या है। What is the cause of sorrow.

बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेण वैराग्यम्

सभी मुनिजनों की सभा में जब गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने राम जी से कहा कि तुम अपनी उपरामता से उत्पन्न चित्त की खिन्न अवस्था का विस्तार से वर्णन करो। तब मोहिनीमूर्ति कमलनयन श्री रामजी अज्ञ और जिज्ञासु के रूप में हाथ जोड़ कर अति विनम्र और मधुर वाणी में बोले -

अहंकारदुराशा वर्णन 

संसारजनी दीर्घा माया मनसि मोहिनी। 

ततो अहंकारदोषेण किरातेनेव वागुरा।

अर्थ-जैसे बहेलिया फंदा बिछाकर मृगों को पकडता है, वैसे ही अहंकाररूपी दोष ने संसाररूपी अंधेरी रात्रि में मन को मोहित करने वाली इस माया का फंदा बिछा रखा है।


अहंकार जीव का परम शत्रु 

Ego's ultimate enemy

श्रीरामजी बोले-हे मुनीश्वर! अहंकार अज्ञान से उदय हुआ है। यह महा दुष्ट है और यही जीव का परम शत्रु है। उसने सब जीवों को दबा रखा है पर मिथ्या है और सब दुःखों की खानि है। जब तक अहंकार है तब तक पीड़ा की उत्पत्ति का अभाव कदाचित् नहीं होता। 

सर्व दुःखों का बीज अहंकार 

The seed of all sorrows ego

हे मुनीश्वर, जो कुछ जीव ने अहंकार से भजन और पुण्य किया, जो कुछ लिया दिया और जो कुछ भी कमाया वह सब व्यर्थ हो जाता है। इससे परमार्थ की कुछ सिद्धि नहीं है। जैसे राख में आहुति डाली व्यर्थ हो जाती है वैसे ही 'मैं' से सब पुण्य व्यर्थ जाता है। जितने दुःख हैं उनका बीज अहंकार है। जब इसका नाश हो तब तो कल्याण हो। अतः इससे आप उसकी निवृत्ति का उपाय कहिए।

हे मुनीश्वर! जो वस्तु सत्य है, इसके त्याग करने में दुःख होता है और जो वस्तु नाशवान् है और भ्रम से दिखती है, उसके त्याग करने में आनन्द है। शान्तिरूप चन्द्रमा के आच्छादन करने को अहंकार रूपी राहु है। जब राहु चन्द्रमा को ग्रहण करता है, तब उसकी शीतलता और प्रकाश ढक जाता है। वैसे ही जब अहंकार बढ़ जाता है, तब समता ढक जाती है। जब अहंकाररूपी मेघ गरज कर बरसता है, तब तृष्णारूपी कण्टकमञ्जरी बढ़ जाती है और कभी नहीं घटती। 

अहंकार के नाश से ही तृष्णा का नाश होता है

The destruction of the ego leads to the destruction of craving.

जब अहंकार का नाश हो तब तृष्णा का अभाव हो। जैसे जब तक मेघ है, तब तक बिजली है; जब विवेक रूपी पवन चले तब अहंकाररूपी मेघ का अभाव होकर तृष्णारूपी बिजली नष्ट हो जाती है। जैसे जब तक तेल और बाती है, तब तक दीपक का प्रकाश है। जब तेल-बाती का नाश होता है, तब दीपक का प्रकाश भी नष्ट हो जाता है। वैसे ही जब अहंकार का नाश हो, तब तृष्णा का भी नाश होता है।

कामना के नाश से ही  दुःख का नाश होता है

The destruction of desire leads to the destruction of sorrow

हे मुनीश्वर! परम दुःख का कारण यह अहंकार है। जब अहंकार का नाश हो, तभी कामना का नाश हो और जब कामना का नाश हो तभी दुःख का नाश हो। अत: यह मैं हूँ का भाव मन से नष्ट होना बड़ा कार्य साधन है। यदि मैं हो तो इच्छा किसे, जब इच्छा नहीं तो दुःख नहीं। अत: इच्छा हो तो यही कि अहंकाररहित पद की प्राप्ति होवे। जैसे जनेन्द्र को अहंकार का उत्थान नहीं हुआ वैसी ही मन की स्थिति हो जाय, यह मेरी इच्छा है।

जब इच्छा नहीं तो दुःख नहीं

When there is no desire, there is no sorrow

हे मुनीश्वर!जैसे कमल को बर्फ नष्ट करता है, वैसे ही अहंकार ज्ञान का नाश करता है। जैसे व्याध जाल से पक्षी को फँसाता है और उससे पक्षी दीन हो जाते हैं, वैसे ही अहंकार रूपी व्याध ने तृष्णा रूपी जाल डालकर जीवों को फँसाया है, जिससे वे महादीन हो गए हैं। 

जैसे पक्षी अन्न के दाने सुखरूप जानकर चुगने आता है फिर चुगते-चुगते जाल में फँसकर दीन हो जाता है, वैसे ही यह जीव विषयभोग की इच्छा करने से तृष्णारूपी जाल में फंसकर महादीन हो जाता है। अत: हे मुनीश्वर!मुझसे वही उपाय कहिए जिससे अहंकार का नाश हो। जब अहंकार का नाश होगा तब मैं परमसुखी होऊँगा।

जैसे मेघ का नाश करने वाला शरत्काल है वैसे ही वैराग्य का नाश करने वाला भी यह अहंकार है 

As autumn is the destroyer of clouds, so is the ego that destroys dispassion.

विंध्याचल पर्वत के आश्रय से उन्मत्त हाथी की तरह अहंकार का आश्रय लेकर मनरूपी हाथी नाना प्रकार के संकल्प विकल्प रूपी शब्द करता है अतः आप वही उपाय कहिए जिससे अहंकार का नाश हो जो अकल्याण का मूल है। जैसे मेघ का नाश करने वाला शरत्काल है वैसे ही वैराग्य का नाश करने वाला भी यह अहंकार है और मोहादिक विकाररूप सर्पों के रहने का बिल है। जैसे कामी पुरुष फूलमाला डालकर प्रसन्न होता है, वैसे अहंकाररूपी कामी पुरुष तृष्णारूपी फूलमाला गले में डाल कर प्रसन्न होता है और बाद में असह्य दुःख भोगता है।

जहाँ अहंकार है वहाँ सब आपदाएँ आकर मिलती हैं

Where there is ego, all disasters come.

हे मुनीश्वर! आत्मा रूपी सूर्य को आच्छादित करने वाला यह मेघरूपी अहंकार है, इसमें जब ज्ञानरूपी शरत्काल आता है तभी अहंकाररूपी मेघ का नाश होता है। यह निश्चय करके मैंने देखा है कि जैसे समुद्र में आकर नदियाँ मिलती हैं, वैसे ही जहाँ अहंकार है वहाँ सब आपदाएँ आकर मिलती हैं। इसलिए हे मुनीश्वर, वही उपाय कहिए जिससे सर्व आपदाओं के घर इस अहंकार का नाश हो जाय।

शब्द वैराग्य वाणी-संत चरणदास जी

चेत सवेरे चलना बाट। यह सब जानौ झूठा ठाट॥ 

जग सराय में कहा भुलानो। भटियारी के मोह लुभानो॥ 

तुझको तो बहु कोसन जानौ। करि हिसाब बनियै की हाट॥ 

कुटुंब मित्र कोइ हितू तेरा। अपने स्वारथ ही को घेरा॥ 

ह्याँ नहि तेरा निश्चल डेरा। उठिये हजै बेगि उचाट॥ 

चलने की तदबीर कीन्हीं। खोटी राह थाह नहिं चीन्हीं॥ 

मंजिलों की खरची नहिं लीन्हीं। गाफिल सोवै अजहूँ खाट॥

भावार्थ-इस जगत् की रचना मिथ्या होते हुए अज्ञान से सत्य भासती है। अत: सन्त सत्पुरुष अपने वचनों से इस जीव को सत्य का बोध कराते हैं कि जीव तू इस जगत् को अपना स्थायी डेरा मान, यह तो एक सराय का निवास है इसमें मिलने वाले सभी लोग राहगीर हैं अर्थात् सब रिश्ते नाते मित्र संबंधियों के साथ भी सराय की तरह थोड़े समय का मिलन है। इनमें कोई अपना स्थायी संबंधी नहीं है। इन सब को छोड़कर जाना है। सत्संगी पुरुष सदा याद रखते हैं कि आगे परलोक के लिए अपनी पूँजी एकत्र कर लेनी चाहिए। वह परलोक की पूँजी क्या है? वह है सद्गुरु की सेवा, नाम का सुमिरण और भजन भक्ति जोकि इस मनुष्य जन्म में ही एकत्र की जा सकती है।


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