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परम पद की प्राप्ति कैसे की जा सकती है । How can one attain the supreme position?

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भगवान् श्री राम जी के श्री मुख से संसार की नश्वरता का वर्णन 

Description of the impermanence of the world from the mouth of Lord Shri Ram ji.

बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेणवैराग्यम्

राजा दशरथ के दरबार में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी और महामुनि विश्वामित्र जी तथा अनेक देवर्षि, राजर्षि व तपस्वी साधु अपने-अपने आसन पर विराजित हैं। श्री राम जी सर्वज्ञ होकर भी गुरुजनों के सम्मुख एक जिज्ञासु और मुमुक्षु बन कर उपस्थित हुए हैं। गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने जब राम जी से कहा कि तुम अपने चित्त की उपरामता का विस्तार से वर्णन करो। गुरुदेव का यह आदेश पाकर श्री राम जी ने इस जगत की असारता का विस्तार से वर्णन करना आरंभ किया। सम्पूर्ण सभा इस व्याख्यान को बहुत ही एकाग्र होकर सुनने में मगन हो गई तथा सुनते-सुनते वैराग्य भावना में बहने लगी। अब तक आप विगत शीर्षकों में पढ़ चुके हैं-श्री रामजी द्वारा वर्णित संसार सुख निषेध, लक्ष्मी नैराश्य, लक्ष्मी दुख और अहंकार दुराशा। इसके पश्चात् इस वैराग्यकड़ी को आगे बढ़ाते हुए सरल हृदय मोहिनीमूर्ति श्री रामजी हाथ जोड़ कर अति विनम्र और मधुर वाणी में बोले-


चित्तदौरात्म्य वर्णन


चित्तं कारणमर्थानां तस्मिन् जगत् सति जगत्त्रयम्।

तस्मिन् क्षीणे जगतक्षीणं तत्चिकित्स्यं प्रयत्नतः॥


अर्थ-सम्पूर्ण पदार्थों का कारण चित् है, उसके अस्तित्व में तीनों लोकों का अस्तित्व है और उसके नष्ट होने पर तीनों लोक नष्ट हो जाते हैं। इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन की चिकित्सा करनी चाहिए अर्थात रोग की तरह चित्त के संकल्पों का त्याग करके अपने वश में अवश्य करना चाहिए।


अंत:करण में तृष्णा क्यों बनी रहती है?


श्रीरामजी बोले हे मुनीश्वर ! मैं चित्त से काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णादिक दुखमूलक रोगों को समूल नाश करके महापुरुषों के गुण, जो वैराग्य, विचार, धैर्य और सन्तोष हैं, उनको धारण करना चाहता हूँ। ये विकार तो सदा-सर्वदा विषयों की गरद उड़ाते हैं। अतः जैसे मोर का पंख पवन में नहीं ठहरता वैसे ही यह चित्त सर्वदा भटका फिरता है पर कुछ लाभ नहीं होता। जैसे श्वान द्वार-द्वार पर भटकता फिरता है वैसे ही यह चित्त पदार्थों के पाने के निमित्त भटकता फिरता है पर प्राप्त कुछ नहीं होता और जो कुछ प्राप्त होता है, उससे तृप्त भी नहीं होता बल्कि अंत:करण में तृष्णा बनी रहती है। जैसे पिटारे में जल भरिये तो वह पूर्ण नहीं होता, क्योंकि छिद्रों से जल निकल जाता है और पिटारा शून्य का शून्य रहता है वैसे ही चित्त भोग और पदार्थों से संतुष्ट नहीं होता, सदा तृष्णा बनी ही रहती है।


हे मुनीश्वर! यह चित्तरूपी महामोह का समुद्र है; इसमें तृष्णारूपी तरंगें उठती रहती हैं, कभी स्थिर नहीं होती। जैसे समुद्र में तीक्ष्ण तरंगों से तट के वृक्ष बह जाते हैं वैसे ही चित्तरूपी समुद्र में विषयी जीव बहे जाते हैं। जैसे जाल में पड़ा हुआ पक्षी दीन हो जाता है वैसे ही चित्तरूप धीवर के वासनारूपी जाल में बँधा हआ यह जीव दीन हो गया है। जैसे मृग के समूह से भूली मृगी अकेली खेदवान होकर अपने समूह में मिलना चाहती है वैसे ही मैं आत्मपद में मिलना चाहता हूँ।


हे मुनीश्वर ! यह चित्त सदा क्षोभवान रहता है, कभी स्थिर नहीं होता। जैसे क्षीरसमुद्र मन्दराचल से क्षोभवान हुआ था वैसे ही यह चित्त संकल्प-विकल्प से खेद पाता है। जैसे पिंजरे में आया हुआ सिंह पिंजरे ही में फिरता है वैसे ही वासना से घिरा चित्त स्थिर नहीं होता। जैसे सूर्य के उदय होने पर दिन होता है और अस्त होने पर दिन का नाश होता है वैसे ही चित्त के उदय होने से त्रिलोकी की उत्पत्ति है और चित्त के लीन होने पर जगत का विलय है।


चित्त की चंचलता के कारण जीव का आत्मानन्द से दूर होना


हे मुनीश्वर ! जैसे भारी पवन से सूखा तृण दूर जा पड़ता है वैसे ही इस चित्तरूपी पवन ने मनुष्य को आत्म-आनन्द से दूर फैंका हुआ है। जैसे नदी का प्रवाह समुद्र में जाता है, उसको पहाड़ सीधे नहीं चलने देता और समुद्र की ओर नहीं जाने देता वैसे ही चित्त आत्मा को अपने मूल में जाने से रोकता है। यह चित्त ही जीव का परम शत्रु है। जैसे राजहंस मिले हुए दूध और जल को भिन्न-भिन्न करता है, उसकी न्याई अज्ञान के कारण जो आत्मा व अनात्मा एक हो गए हैं, उसको भिन्न करके परमपद पाने का मैं जिज्ञासु हूँ।


हे मुनीश्वर ! वही उपाय कहिये जिससे चित्तरूपी शत्रु का नाश हो। जैसे बालक अपनी परछाहीं को बैताल मानकर भय खाता है और जब विचार करने में समर्थ होता है तब बैताल का भय नहीं होता वैसे ही आप वही उपाय कहिये जिससे चित्तरूपी बैताल नष्ट हो जावे।


श्री रामजी बोले, हे मुनीश्वर ! बड़े समुद्र का पान कर लेना, अग्नि का भक्षण कर लेना और सुमेरु का लंघन कर लेना सुगम हो सकता है, परंतु इस चित्त को जीतना कठिन है। यह चित्त कभी-कभी बड़ा गंभीर और विरक्त भी हो बैठता है, परंतु अपना मूल स्वभाव नहीं त्यागता। जैसे चील पक्षी आकाश में ऊँचे फिरते हुए पृथ्वी पर जब कभी माँस देखता है तो ऊपर से आकर उस माँस को उठा लेता है। वैसे ही यह चित्त तब तक उपराम है जब तक भोग नहीं देखता, विषय दिखते ही उस पर टूट पड़ता है।


परम पद की प्राप्ति कैसे की जा सकती है

How can one attain the supreme position?


हे मुनीश्वर ! महापुरुष जब इस चित्त को जीतने का यत्न करते हैं तब बहुत दृढ़ साधना से वे इसे जीत लेते हैं और परमपद पाते हैं। आप वही उपाय कहो जिससे मैं इस चित्तरूपी शत्रु को जीतूं। मैं परमपद को पाने का दृढ़ संकल्प करता हूँ, आप मुझे वही ज्ञान प्रदान कीजिए। आप स्वयं प्रबुद्ध हैं अतः मुझे भी वह आत्मबोध दीजिए जिससे मैं इस महाबलवान चित्त को जीत कर परमपद पा सकूँ।


। वैराग वाणी सन्त चरणदास जी ।


थिर नहीं रहना है आखिर मौत निदान॥

देखत देखत बहुतक विनशे, आवत तुमरी वार।

यतन करै कोई नाना विधि के, बचै नहीं नर नार॥

कित गये रावण कुंभकरण से, हिरण्याकुश शिशुपाल।

शंकर दियो अमर वर जिनको, सो भी खाये काल॥

यह बर्तन काँच को रे, ठबक लगै खिल जाय।

आज मरै के कोटि बरस लौं, अंत नहीं ठहराय॥

बीतत अवधि चलावा आवै, छोड़ि जगत की आस।

गुरु शुकदेव चिता तोको, समझ चरणहिदास॥


भावार्थ-इस जग में जीवन काँच के बर्तन की तरह स्थिर नहीं है। रावण, कुंभकरण, हिरण्याकुश और शिशुपाल जैसे बलवान भी काल के ग्रास बन गए। मृत्यु अटल है। मुनि शुकदेव जी चेतावनी दे रहे हैं अभी से जाग कर भजन भक्ति कर लो।


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