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सब दुखों का मूल तृष्णा है।The root of all suffering is craving.

सभी दुखों की जड़ तृष्णा है।


सब दुखों का मूल तृष्णा है।The root of all suffering is craving.

बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी श्री रामेणवैराग्यम्

राजा दशरथ के दरबार में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी और महामुनि विश्वामित्र जी तथा अनेक देवर्षि, राजर्षि व तपस्वी साधु अपने-अपने आसन पर विराजित हैं। श्री राम जी सर्वज्ञ होकर भी गुरु-जनों के सम्मुख एक जिज्ञासु और मुमुक्षु बन कर उपस्थित हुए हैं। गुरु वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी ने जब राम जी से कहा कि तुम अपनी उपरामता से उत्पन्न चित्त की खिन्न अवस्था का वृत्तांत विस्तार से वर्णन करो। तब मोहिनीमूर्ति कमलनयन श्री रामजी हाथ जोड़ कर अति विनम्र और मधुर वाणी में बोले-


तृष्णागारुडीवर्णन


सर्वेषां जन्तुजातानां संसारव्यवहारिणाम्।

परिप्रोतमनोमाला तृष्णा बंधनररज्जुवत्॥


अर्थ-जैसे अनेक पशुओं के बांधने के लिए गले में लगी हुई रस्सियों से मिश्रित माला सदृश तिरछी विस्तृत रज्जु (रस्सी) होती है, वैसे ही सांसारिक व्यवहार में फँसे हुए प्राणियों के समूहों के मनों को चारों ओर से बांधने के लिए यह तृष्णा रूप रज्जु है।


ज्ञानरूपी सूर्य उदय हो तब तृष्णा रूपी रात्रि का अभाव


श्रीरामजी आगे बोले कि हे भगवन्! चेतनरूपी आकाश में तृष्णारूपी रात्रि आई है और उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोहादिक उल्लू विचरते हैं। जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय हो तब तृष्णा रूपी रात्रि का अभाव हो और जब रात्रि नष्ट हो तब मोहादिक उलूक भी नष्ट हों। जैसे जब सूर्य उदय होता है तब बर्फ उष्ण हो पिघलने लगती है वैसे ही सन्तोष रूपी रस को तृष्णा रूपी उष्णता पिघला देती है। आत्मपद से शून्य चित्त भयानक वन है, उसमें तृष्णा रूपी पिशाचिनी मोहादिक परिवार को अपने साथ लिये फिरती रहती है और प्रसन्न होती है।


आत्मपद से शून्य चित्त भयानक वन है


हे मुनीश्वर! चित्तरूपी पर्वत है उसके आश्रय तृष्णा रूपी नदी का प्रवाह चलता है और नाना प्रकार की संकल्प रूपी तरंगों को फैलाता है। जैसे मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होता है वैसे ही तृष्णा रूपी मोर भोग रूपी मेघ को देखकर प्रसन्न होता है, इसलिए सब दुखों का मूल तृष्णा है। जब यह जीव सन्तोषादि गुण का आश्रय लेने लगता है तब तृष्णा उसको नष्ट करने लग जाती है। जैसे सुन्दर सारंगी को चूहा काट डालता है वैसे ही सन्तोषादि गुणों को तृष्णा नष्ट करती है।


परमपद की प्राप्ति में सबसे बड़ी अड़चन तृष्णा


हे मुनीश्वर! सबसे उत्कृष्ट पद में विराजने का यत्न करने पर यह तृष्णा ही विराजने में विघ्न डालती है। जैसे जाल में फंसा हुआ पक्षी आकाश में उड़ने का यत्न करता है परन्तु उड़ नहीं सकता वैसे ही अनात्म से आत्मपद को जीव प्राप्त नहीं हो सकता। स्त्री, पुरुष, पुत्र और कुटुम्ब का इस तृष्णा ने ही जाल बिछाया है उसमें फँसा हुआ जीव निकल नहीं पाता और आशा रूपी फाँसी में बँधा हुआ कभी ऊपर को जाता है, कभी नीचे गिरता है। घटीयन्त्र की न्याई इसकी गति हो जाती है।


जैसे इन्द्र का धनुष काले मेघ में बड़ा और बहुत रंगों से भरा दिखाई देता है परन्तु मध्य में शून्य ही होता है, वैसे ही तृष्णा मलिन अंत:करण में होती है, वह बढ़ कर सद्गुणों से रहित कर देती है। यह ऊपर से देखने मात्र सुन्दर है परन्तु इससे कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता।


तृष्णारूपी बादल का नाश होकर आत्मपद का साक्षात्कार


हे मुनीश्वर! तृष्णा-रूपी मेघ से दुखरूपी बूंदें निकलती हैं अथवा तृष्णा-रूपी काली नागिन है जिसका स्पर्श तो कोमल लगता है परन्तु विष से पूर्ण होता है, उसके डसने से जीव मृतक हो जाता है। तृष्णारूपी बादल है जो आत्मरूपी सूर्य के आगे आवरण करता है। जब ज्ञानरूपी पवन चले तब तृष्णारूपी बादल का नाश होकर आत्मपद का साक्षात्कार हो। ज्ञानरूपी कमल का संकुचन करने वाली तृष्णारूपी निशा है। उस तृष्णारूपी महाभयानक कालीरात्रि में बड़े धैर्यवान भी भयभीत होते हैं और नयनवालों को भी यह अन्धा कर डालती है। जब यह तृष्णा आती है तब वैराग्य और अभ्यासरूपी नेत्र को अन्धा कर डालती है अर्थात् सत्य असत्य विचारने नहीं देती।


हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी डाकिनी है वह सन्तोषादिक गुणों को मार डालती है। तृष्णारूपी कन्दरा है उसमें मोहरूपी उन्मत्त हाथी गर्जते हैं। तृष्णारूपी समुद्र है उसमें आपदारूपी नदी आकर प्रवेश करती है इसलिए वही उपाय मुझसे कहिये जिससे तृष्णारूपी दुख सागर से पार पाया जाय।


। शब्द वैराग्य वाणी सन्त चरणदास जी ।


गुरुमुख यह जग झूठ लखाया।

साधुसंग अरु वेद कहत हैं, और पुराणन गाया॥

मृगतृष्णा के नीर भुलाना, सीपी रूपा जाना।

फटिक शिला पर पीक परी है, मूरख लाल लुभाना॥

स्वप्ने में सब ठाठ ठठो है, कुल नाते परिवारा।

दृष्टि खुली जब सबहि नाशे, रह्यो नहीं आकारा॥

ताते चेत भजन कर हरि को, ह्याँ मत मन को पागो।

वा घर गये बहुरि नहीं आवै, आवागवन न लागो॥

या स्वप्ने में लाभ यही है, चरणदास शुक भाखो।

योगेश्वर जा पद मिलि रहिया, तुरीयाहि चित राखो॥


भावार्थ-सन्त सदगुरु महापुरुष और वेद पुराण सदा यह उपदेश करते हैं कि यह जगत मिथ्या आभास है इसकी चांदी की तरह दिखने वाली चमक दमक तो मृगतृष्णा के जल की तरह है और लाल की तरह दिखने वाली स्फटिक शिला पर पड़ी पीक की तरह है जो सुंदर तो दिखाई देते हैं पर इनसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सब परिवार और इसका संबंध स्वप्न रचना की तरह है जो आँख खुलते ही नष्ट हो जाता है। अतः इस मिथ्या जग रचना में अपना मन मत लगाओ, यह तो जन्म मृत्यु के आवागमन में डालने वाली रचना है। इस दुख बंधन से छूटने का तो एक ही उपाय है कि सदा सचेत रहकर प्रभु भजन करते रहो। श्री शुकदेव जी ने चरणदास जी को यही ज्ञान दिया है कि ध्यान सुमिरण करके अभी से मुक्ति का मार्ग अपना लो।


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