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अवतार-पुरूष भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी भी अपने विश्व-प्रसिद्ध गीतोपदेश में स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं :-Lord Shri Krishna Chandra, the incarnation-man, also declares in his world-famous song, in clear words: -

bhagwan and arjun

न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं, त्रिषुलोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं, वर्त्त एव च    कर्मणि।।
श्रीमद्भवद्गीता अ0 3, श्लोक, 22

हे अर्जुन! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है तथा किंचित् भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।

जिज्ञासु प्रश्न कर सकता है कि जब सब कुछ ब्रह्म ही है फिर यह सारा कर्म-चक्र कैसे कार्य करेगा ? प्रारब्ध-संचित क्रियमाण कर्मों की सम्पूर्ण व्याख्यायें निरर्थक हो जाएंगी।

जन्म-मरण का सारा झमेला खटाई में पड़ जाएगा। चौदह लोकों के धर्म-कर्म, नियम-विनियम सब समाप्त हो जायेंगे। इसका कारण यह है कि ब्रह्म को तो कुछ करना-धरना होगा नहीं क्योंकि कोई भी क्रिया करना वहां सम्भव होता है जहां किसी प्रकार की अपूर्णता दिखाई देती हो। परिपूर्ण ब्रह्म के लिये कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता ? यह तो हम यहां ब्रह्म का चर्चा कर रहे हैं।

यह श्री कृष्ण अपने ब्रह्ममय होने का प्रमाण कितनी सुन्दरता से हमें देते हैं :-

चेतसा  सर्वकर्माणि,   मयि संन्यस्य  मत्परः ।

बु़द्धयोग  मुपाश्रित्य,  मच्चित्तः  सततं भव ।।

मच्चित्तः  सर्वदुर्गाणि,  मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।

अथ चेत्वमहंकारान्न  श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि  ।।

गीता अ0 18 श्लोक 57-58

’ऐ अर्जुन! तू  सब कर्मों को मन से मेरे अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्व बुद्धि रूप निष्काम कर्मयोग का अवलम्बन करके निरन्तर मेरे चित्त वाला हो जा’-

इससे क्या होगा-

’’तू मेरे में निरन्तर मन वाला हुआ हुआ मेरी कृपा से जन्म-मृत्यु आदि सब संकटों से अनायास ही तर जायेगा और यदि अहंकार के वश होकर मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायेगा अर्थात् तू परमार्थ-पथ से हाथ धो बैठेगा।’’

यह है स्वरूप एक ब्रह्मरूप पुरूष का-अपने इसी रूप की दिव्य झांकी श्री भगवान कृष्ण चन्द्र जी इस प्रकार देते हैं :-

समोअहं सर्वभूतेषु,  न मे  द्वेष्योअस्ति  न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या,  मयि ते तेषु चाप्यहम्।।

गीता अ0 9 श्लोक 29

मैं सब भूतों में (स्थावर-जंगम जगत् में) समान भाव से व्यापक हूं-न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है। परन्तु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं वे मेरे में और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होता हूँ।

युग युग में अवतार-पुरूषों का आना केवल धर्म के स्वरूप को अपने जीवन से बतलाना होता है। वे स्वयं मूर्तिमान् धर्म होते हैं। उनकी अन्तर्दृष्टि में ब्रह्म ही ब्रह्म  सर्वत्र अपनी अलौकिक लीलाएं करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। वे स्वयं भी सगुण-साकार ब्रह्म ही होते हैं। उन्हें ब्रह्माण्ड की एक एक वस्तु में ब्रह्म का ही प्रत्यक्ष दर्शन हुआ करता है। तभी तो उन्हें चराचर जगत् की मर्यादाओं को विश्रंखलित होता हुआ देख कर महादुःख होता है।



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