अणु-अणु सच्चिदानन्दमय है।
जो कोई ऐसा मानने-जानने और स्वीकार करने में तनिक भी आनाकानी करता है तो शास्त्र का भीषण दण्ड उस के सिर पर यों आकर गर्जने लगता है- ’मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति’ अर्थात् वह अज्ञानी मनुष्य महामृत्यु के हाथों से कभी भी नहीं बच सकता है जो इस संसार को उस ब्रह्म से भिन्न अनेक रूपों में विभाजित मानता है। वह जीव एक देह से दूसरी देह में परिभ्रमण करता फिरता है जो ब्रह्म को छोडकर किसी अन्य रूप की कल्पना भी करता है। देखिये कितने कठोर दण्ड का विधान है उस जीव के लिये जो ब्रह्म भाव से पृथक् होकर कुछ भी देखता है।
जिस ने योगाभ्यास के द्वारा सुरत शब्द योग की उच्चतम दशा पर अपना अधिकार कर लिया है-वह यदि आवश्यकता पडने पर अपने को ’अहं ब्रह्मास्मि’ कह कर अभिव्यक्त करता है तो उस का अहंकार त्रिकाल सत्य है। वह यदि न भी कहे तो भी उसका रोम-रोम अजपा जाप के करने में विलीन है। सूर्य को कभी आवश्यकता नहीं होती कि वह अपने आगमन की सूचना मुख से कह कर देवे-वह यदि मेघाच्छन्न गगन में निकला है तो भी संसार जान जाता है कि यह प्रकाश सूर्य का है।
अहं ब्रह्मास्मि-जैसे अत्यन्त गोपनीय महावाक्य का पांच भूतों से और तीन गुणों से बनी हुई जिह्वा में क्या शक्ति है जो उच्चारण कर सके। यह परमोत्कृष्ट वाक्य अन्तर्मानस में स्वतः ही गूंजा करता है। श्वास श्वास में इसकी स्वर लहरी निरन्तर उठा करती है।
ऊपर लिखी पंक्तियों का जब परिमन्थन करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें अपनी जीवन धारा को तुरन्त ही बदल लेना चाहिये। इस सम्पूर्ण प्रपंच में ब्रह्म को ही देखने का अभ्यास करना चाहिये। स्थावर-जंगम जगत् ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
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