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एक विद्वान कवि के कैसे रमणीय वचन हैं-वे सन्तों की महिमा का रूचिर चित्र उतारते हुए लिखते हैं। How delightful are the words of a learned poet - he writes by taking an interesting picture of the glory of saints.

संतों की महिमा 

शान्ता  महान्तो  निवसन्ति सन्तो,

वसन्तवल्लोकहितं  चरन्तः   ।

तीर्णां स्वयं भीमभवार्णवं जनानहेतु

नान्यानपि              तारयन्तः ।।

अर्थात् इस भयंकर संसार सागर से जो स्वयं तरे हुए होते हैं। शान्त और महान सन्त जन निःस्वार्थ बुद्धि से दूसरे लोगों को भी तारते हैं। वे इस संसार में बसन्त ऋतु के समान लोक कल्याण करते हुए निवास किया करते हैं।

अपना जीवन किसे प्यारा नहीं लगता ? छोटी सी च्यूंटी भी अपने प्राणों पर आँच नहीं आने देना चाहती। बड़े  डील डौल वाला गजराज भी निज जीवन से प्यार करता है। ब्राह्मण हो या चाण्डाल, निर्धन हो अथवा धनवान्, महामूर्ख हो या महापण्डित अपनी काया को सुखी, स्वस्थ एवं हृष्ट पुष्ट देखना चाहता है। क्यों ? 

इसलिये क्योंकि अनन्त इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये सब के घट में बैठे हुए मन को स्वस्थ तथा निरामय शरीर की आवश्यकता रहती है। जन्मकाल से लेकर मृत्यु तक सैकड़ों ही नई से नई कामनाएं अन्तर्मानस में ऐसे उठा करती हैं जैसे विशाल जलाशय में लहरें। 

भाव यह कि प्रायः जीव अपने ही जीवन को सुन्दर मधुमय और स्वस्थ रखने की कामना करते हैं। किन्तु ये मानव मरने के उपरान्त अपने पीछे कोई प्राणदायिनी प्रेरणा नहीं दे जाते। विश्व के अन्य प्राणियों के लिये कोई जीवन-ज्योति नहीं जगा जाते। जन्म लिया बड़े हुए, धन परिवार बनाया, उनके पाल-पोषण में व्यस्त रहे-समय आया और वे विश्व के रंगमंच से विदा हो गये। 

उनका शरीर अपने पांचों तत्वों में विलीन हो गया-सूक्ष्म काया मोह माया के संस्कारों में लिपटी हुई स्वकीय कर्मों के अनुसार नयी देह में जा समाई। सर्वसाधारण मनुष्यों की ऐसी दशा होती है। उनके जीवन को सन्त महापुरूष जीवन नहीं कहते। 

जीवन केवल श्वासों के लेने का नाम नहीं है।

जीवन केवल श्वासों के लेने का नाम नहीं है। मनुष्य अपने श्वासों को पूर्ण करने के लिये नहीं आता है-उसमें और पशु-पक्षी में अन्तर ही क्या हुआ यदि उसने अपने परम पिता परमेश्वर की उपासना सन्त सत्पुरूषों की संगति का लाभ नहीं लिया ?

मानव जन्म तो संसार के अन्य प्राणियों को नई दिशा देने के लिये मिलता है।

मानव जन्म तो संसार के अन्य प्राणियों को नई दिशा देने के लिये मिलता है। कर्म योनि में उत्पन्न मात्र मानव ही तो है। इसे अपनी देह में भगवान् की भक्ति करनी है। सन्त सत्पुरूषों की संगति में जाना है। उन से निर्मल ज्ञान की बटी प्राप्त करके मोह रूपी मदिरा पीकर मूर्च्छित हुए जगत् के दूसरे प्राणियों को सचेत करना है। 

ईश्वर के ध्यान में, उनकी महिमा का गान करने में एवं विमल योगाभ्यास द्वारा अपने चित्त की वृत्तियों को समाहित करने में समय व्यतीत करना है-सन्त सत्पुरूष तो बसन्त ऋतु के समान संसार के बगीचे की कली कली को चटकाते हैं-फूलों में रस भरते हैं और प्राणिमात्र के कल्याण में अपने को धन्य समझते हैं।

मनुष्य जन्म की दुर्लभता 

जिस मानव चोले को प्राप्त करने के लिये देव लोकों में निवास करने वाले देवगण भी तरसते हैं-वह मानुषी काया जिन्हें अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप मिल गई है वे क्यों न ये दो काम कर लें-"कै संगति कर साध की कै हरि के गुण गाय’’-अर्थात् सन्त महात्माओं की पावन संगति प्राप्त करें और दूसरा उस सृष्टि के रचयिता प्रभु की अपार महिमा का गान करें।

सत्संगति से मनुष्य को ज्ञान दृष्टि मिलती है महात्माओं की दया दृष्टि से इस जन्म जन्म के कुटिल मन की सारी कालिमा धुलने लगती है। मानव के अन्तःकरण में प्रकाश आता है। उसे सत्य-असत्य की, नित्य अनित्य की और अपने-पराये की परख हो जाती है। सन्त सत्पुरूष ही स्वार्थ में अन्धे हुए जीवों की आंखों में ज्ञान का अंजन डारते हैं।

मनुष्य जन्म की सफलता 

हरि का स्मरण करने से और सन्त सद्गुरूदेव जी के पावन दर्शन और सेवा से मनुष्य की आत्मा में वह शक्ति उभरने लगती है जिससे वह माया और काल से अनायास लोहा ले सकता है। अन्दर बैठे हुए काम-क्रोध आदि समस्त विकारों को अपनी मुट्ठी में कर लेता है। इसे कहते हैं निर्भय होकर जीना-अपने जीवन को त्याग और वैराग्य की गंगा एवं यमुना की निर्मल धाराओं से शान्त कर लेना है। यही सफल जीवन की निशानी है। वह आदर्श पुरूष अपने जीने की ही चिन्ता न करता हुआ विश्व के जीवों को जीने देता है।


 

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