मनुष्य का धर्म क्या है ?
इस वर्तमान वैज्ञानिक युग में, जीने दो की विमल सद्भावना विलुप्त हुई जा रही है। ’’परार्थ अर्थात् दूसरे के निमित्त भी कुछ करना मनुष्य का धर्म है।’’ यह रूचिर विचार स्वप्न बनता जा रहा है। स्वार्थ-सिद्धि आज के मानव मानस का अंग है। वह ’जियो’ तक ही अपने को देखना चाहता है। दूसरे के शरीर में भी मेरे प्राणों जैसे प्राणों का संचरण हो रहा है यह दृष्टि धीरे-धीरे विदा होती जाती है। @janjagranindia
कहां वह राजा शिवि जो एक कपोत (कबूतर) के प्राणों की रक्षा करने के लिये अपने समूचे शरीर को तुला के दूसरे पलडे में चढ़ा देता है। कहां वह राजा रन्तिदेव जो 49 दिन तक सपरिवार भूखा रह जाता है परन्तु द्वार पर आये हुए किसी अभ्यागत को अन्न खिलाये बिना लौटाता नहीं।
पाण्डव वन में विचर रहे थे। एक ब्राह्मण परिवार के घर में अतिथि जा बने। एक दिन ब्राह्मणी को गहरी चिन्ता में डूबा हुआ देखकर माता श्री कुन्ती जी ने उससे उसके दुःख का कारण पूछा-वह गृह पत्नी बोली-बहन!
इस हमारे जनपद में एक बकासुर नाम का महादैत्य रहता है। वह अपने आहार के लिये स्वच्छन्द होकर कितने ही लोगों का संहार कर देता था। एक दिन हमारी नगरी के गण-मान्य पुरूषों ने उससे प्रार्थना की कि हम तुझे एक न एक व्यक्ति अपने परिवार में से तेरे भोजन के लिये भेज दिया करेंगे तू मनमाना सर्वनाश न किया कर।
उसी नियम के अनुसार आज मैं अपना बलिदान दिया चाहती हूँ। अपने पतिदेव और पुत्रों से यही कह रहीं हूँ कि तुम सब बडे आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करो मैं दैत्यराज के पास जाती हूँ। पुत्र कहते हैं कि ऐ माता! ऐसा कदापि नहीं होगा। तू हमारी जन्मदात्री है-अतुल स्नेह बरसाने वाली जननी है-हम तुझे नहीं जाने देंगे। यह धर्म हमारा है कि माता को पूर्ण सुख देवें।
हमारा जीवन किस काम का जो स्वयं जीने की इच्छा करें और तुम प्राण विसर्जन कर दो। नहीं होगा-शेष रहे पतिदेव। सती नारी पति परायणा होती है-वह अपने जीवन काल में पति का वियोग कदापि सहन नहीं कर सकती। अब दैत्यराज के भोजन करने का समय भी हुआ चाहता है इसलिये मैं उस की अध्यशिला पर बैठने के लिये जाने का आग्रह कर रही हूँ
माता कुन्ती ने कहा कि ऐ ब्राह्मणी! तनिक रूक जा-मैं अभी घर से होकर आती हूँ-यह कह कर कुन्ती माता पुत्रों के पास गई और उनसे उस ब्राह्मणी की सारी करूणापूर्ण गाथा कह सुनाई।
भीमसेन तो वैसे ही गठीले बदन के थे बडे बलवान् और पराक्रमी। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणी के परिवार के हम बडे ऋणी हैं-हमें उसके किये हुए अतिथि-सत्कार का बदला चुकाना चाहिये अतः मैं ही वहां राक्षस बकासुर के पास जाता हूँ तुम ब्राह्मणी के परिवार को इस मरने के भय से मुक्त कर दो। वैसा ही किया गया-भीम बध्यशिला पर पहले ही बैठ गये और लगे अपने साथ लाये हुए भोजन पर हाथ साफ करने।
बकासुर समय पर आया और सामने विशालकाय एक हष्ट-पुष्ट ब्राह्मण पुत्र को देखकर गरजा-भीम ने भी कहा कि आज तुम्हारा अन्तिम दिन है तुम महाकाल के गाल में समा जाने के लिये उद्यत हो जाओ’-तुम कौन हो मुझे नाकों चने चबवाने वाले ? ज़रा संभलकर बात करो तुम नहीं जानते मैं बकासुर हूँ। तुम जैसे कितनों को मैं अपनी फूँक से उड़ा चुका हूँ-तुम कौन से खेत की मूली हो ?
इस प्रकार उनका आपस में पहले तो वाग्युद्ध छिड़ा और फिर शस्त्रों पर उतर आये-भीम ने उसे भुजबल से ऊपर आकाश में घुमाकर नीचे ऐसा पटका कि उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
ब्राह्मण परिवार की तो रक्षा हो गई और सारे जनपदवासियों का परम कल्याण हो गया। यह है जीने दो और जियो-मनुष्य का जन्म परोपकार से ही निखरा करता है। मानव मानव है यह मात्र भोग योनि का प्राणी नहीं है। इसे नवीन कर्म करने का भी अधिकार है ।
प्रारब्ध कर्मों का जहां इसे उपभोग करना है वहां इसे यह भी सोचना है कि मेरे वर्तमान जन्म में किये जाने वाले कर्मों में कुछ विशेषता होनी चाहिये।
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