।।चौपाई।।
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।
पाइ न जेहि परलोक संवारा।।
।। दोहा।।
सो परत्र दुःख पावई, सिर धुन धुन पछिताय।
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाय।।
अर्थ : एक बार भगवान् श्री राम जी ने अयोध्या वासियों को उपदेश करते हुए मनुष्य तन की महत्ता का वर्णन किया है कि यह मनुष्य तन अति सौभाग्य और शुभ संस्कारों का फल है, ऐसा श्रेष्ठ ग्रन्थ कहते हैं और यह देवताओं को भी प्राप्त होना दुर्लभ है। यह सब प्रकार की साधना का स्थान है, मनुष्य जैसी साधना इसमें करनी चाहे कर सकता है और जहाँ पहुँचना चाहे पहुँच सकता है और शरीर चौरासी लाख योनियों के बन्धन से छूटने के लिये खुला हुआ दरवाज़ा है।
तो फिर ऐसे अनमोल शरीर को पाकर जिसने परलोक का उद्धार नहीं किया वह अन्त में सिर धुन-धुन कर रोयेगा और पश्चात्ताप करेगा, परन्तु उस रोने-पछताने से हाथ कुछ नहीं आयेगा और अब जो मनुष्य यह कहा करता है कि मुझे भगवान् की भक्ति के लिये समय नहीं मिलता या मरे कर्मों में यदि भक्ति होगी तो अपने आप प्रेरणा हो जायेगी, इसके लिये पुरूषार्थ करने की क्या आवश्यकता है? या जब ईश्वर की इच्छा होती है तो वह स्वयं ही जीव को भक्ति में लगा देता है, ये बातें सब व्यर्थ हो जायेंगी और यह बहाने वहाँ कोई नहीं सुनेगा।
भाव यह कि ऐ मनुष्य! प्रभु की भक्ति करना तेरा सबसे मुख्य धर्म है। इसके लिये तेरा समय पर, कर्मों पर, और ईश्वर पर दोष देना बिल्कुल मिथ्या है क्योंकि मनुष्य शरीर का प्राप्त होना ही इस बात को निश्चय करता है कि तुझे भक्ति करना आवश्यक है और भगवान् ने तुझ पर खास दया करके तुझको यह अमूल्य समय दिया है कि तू आवागमन के चक्र से छूटकर मुक्ति को प्राप्त कर ले, फिर इस प्रकार के उज़र और बहाने यहाँ किस अर्थ हैं?
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