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कर्तव्य का पालन जो करता , फल की इच्छा छोड़कर। चारों पदार्थ उसके आगे, खड़े दोनों कर जोड़कर। Shri Bhagwan Krishna Chandra Ji Maharaj Arjun Ko Kartvya Karm Ke Bare Me Updesh Kar Rahe Hain.

Gita

कर्तव्य का पालन जो करता , फल की इच्छा छोड़कर। 
चारों पदार्थ उसके आगे,  खड़े दोनों कर जोड़कर। 

अर्जुन को भी कर्तव्य-कर्म के बारे में समझा कर श्री भगवान कथन करते हैं कि - ऐ अर्जुन ! अब मैं तुझे सकाम कर्म तथा निष्काम कर्म का विषय समझाता हूँ, क्योंकि कर्तव्य - कर्म करने के लिए कई लोग सकामता का आश्रय लेते हैं तथा कई निष्कामता का। इसी को ही सकाम तथा निष्काम कर्मोपासना का रूप कहते हैं। उपासक कहते हैं उपासना करने वाले को तथा उपासना वह है जिस साधन से उपासना की जाये।  सकाम भावना से देवताओं की उपासना करने वाले मनुष्यों का लक्ष्य केवल भोग - सुख पाना ही है, इसीलिए भगवान श्री कृष्ण जी ने उन्हें अज्ञानी कहा है। 

परमार्थ की राह में है,  संतों के मत में एकता। 

सकामी और अज्ञानियों के,  मत में है अनेकता।

भोग ऐश्वर्यों के इच्छुक हैं,  केवल अज्ञानी ही। 

सार वेदों - शास्त्रों का,  वे बताते बस यही। 

लक्ष्य है जीवन का केवल, भोग - सुख पाना अपार। 

इससे बढ़कर अन्य कोई, जग में नहीं ज्ञान का सार। 

परमार्थ - पथ के भेदी और आत्म तत्व के ज्ञाता संत सत्पुरुषों का एक ही मत है कि आत्म तत्व को जानने के लिए निष्काम भाव से कर्तव्य - कर्म करने पर अज्ञान का आवरण दूर हो जाता है। जब तक यह आवरण दूर नहीं हो जाता, तब तक यह जीव सच्चे सुख को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। 

सकाम उपासना - इसका अर्थ है उपासना आदि कर्मों को फल की इच्छा से करना। अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति और सांसारिक सुखोपभोगों की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए देवताओं की आराधना करने वालों को गीता में सकामी कहा गया है। सकामी मनुष्य उपासना की व्याख्या अपनी बुद्धि अनुसार करते हैं। भगवान श्री कृष्ण जी ने सकामी मनुष्यों को अज्ञानी कहा है। ऐसे अज्ञानी लोग वेदवर्णित सकाम कर्मकांड को ही अपनी बुद्धि अनुसार यथार्थ ज्ञान अथवा सार तत्व बतलाते हैं। उनका यही कहना है कि शरीर के अपार सुखों की प्राप्ति हो, इससे बढ़कर ज्ञान संसार में और कोई नहीं। 

अज्ञानी लोग इस शरीर को सर्वस्व समझकर इसके लिए सभी सुखेश्वर्यों तथा सुखुपभोगों का सामान जुटाना परम लक्ष्य - सिद्धि मानते हैं। अब विचार करने योग्य विषय यह है कि जप, तप, सयंम, यज्ञादि साधन किये, शरीर को तपाया, अनेक प्रकार के व्रत, दान, नियम, धर्म किये ; केवल इसी अभिलाषा को लेकर की सांसारिक भोगैश्वर्यों की प्राप्ति हो, तो उन कर्मों को करने से लाभ ही क्या हुआ, क्योंकि इन साधनों के फलस्वरूप सांसारिक भोगैश्वर्यों की प्राप्ति हो भी जाये तो  न तो वे स्थाई सुख प्रदान कर सकते हैं और न ही सर्वदा स्थिर रह सकते हैं। जब दृश्यमान जगत ही मिथ्या भ्रम है तो इसके भोग सत्य और स्थिर क्यों होंगे ? इसीलिए सब धर्मग्रंथों तथा वेद - शास्त्रों ने निष्काम भक्ति तथा सकाम भक्ति दोनों का वर्णन करते हुए निष्काम भक्ति की ही महिमा गाई है। जिसने भी निष्काम भक्ति की वही शाश्वत सुख को प्राप्त कर सका। इसके विपरीत जिसने कामना युक्त भक्ति की, उसके फलस्वरूप उसकी कामना तो पूर्ण हुई, परन्तु परमतत्व आत्मा का साक्षात्कार करने से  वंचित रह गया।

एक बार युधिष्ठिर जी ने मुनि मार्कण्डेय जी से पवित्रता, तप तथा मोक्ष के विषय में पूछा तो मुनि जी ने कहा राजन ! पवित्र तीर्थों में स्नान, वेद मन्त्रों या भगवान्  के नाम का कीर्तन एवं सत्पुरुषों का सत्संग - कार्यों को विद्वान पुरुष श्रेष्ठ मानते हैं।  सज्जन पुरुष संतों सत्पुरुषों की वाणी रूप जल से ही अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं। जो मन, वाणी, कर्म तथा बुद्धि से कभी पाप नहीं करते, वे ही वास्तव में तपस्वी हैं, शरीर तपाने  वाले नहीं। हे राजन ! ज्ञान अथवा निष्काम कर्म योग से ही जरा - मृत्यु आदि सांसारिक व्याधियों से मुक्ति तथा उत्तम पद की प्राप्ति होती है।  जिस प्रकार भुना हुआ बीज भूमि में डालने से अंकुरित नहीं होता वह बीज आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी अग्नि के प्रज्जवलित होने पर कर्म रूपी बीज भी नष्ट हो जाते हैं आवागमन से मुक्ति मिल जाती है। 

अतएव संत सत्पुरुष जीव को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यही उपदेश देते हैं कि  ऐ जीव ! संत सत्पुरुषों के वचनों पर अमल कर। मनुष्य जन्म के इस स्वर्ण अवसर को शारीरिक सुख उपभोगों की कामनाओं में ही व्यतीत न कर, क्योंकि इन सुखों की ओट में दुःख छिपा हुआ है।   चमक - दमक वाली वस्तुओं का प्रतिबिम्ब स्थिर पानी पर पड़ने से वह उन वस्तुओं के वास्तविक रूप से भी अधिक आकर्षक दृष्यमान होता है, परन्तु तनिक वायु के झोकें से पानी हिला कि  उसकी सम्पूर्ण शोभा समाप्त, उसी प्रकार सकाम कर्म अर्थात मनोवांछित वस्तुओं की प्राप्ति हेतु की गयी उपासनाओं का फल भी प्रतिबिम्ब की भाँति लुभायमान तो अधिक प्रतीत होता है, किन्तु उसमें स्थिरता या वास्तविकता किंचित मात्रा भी नहीं होती। मनुष्य का लक्ष्य इन स्थाई भोगों को प्राप्त करना नहीं है, प्रत्युत आत्म - साक्षात्कार करके मोक्ष की प्राप्ति करना है। 

One who performs the duty, leaving the desire for the result.

The four substances standing in front of him, adding both hands.

After explaining to Arjuna about the duties and deeds, Shri Bhagavan says that - O Arjuna! Now I will explain to you the subject of result action and non-working action, because in order to perform duty, many people take shelter of sakamta and many people take refuge in non-scandalism. This is what is called the form of Sakam and Nishkaam Karmopasana. Worshipers say to the worshiper and worship is the means by which to worship. The goal of human beings who worship the deities with result spirit is only to get pleasure and happiness, that is why Lord Shri Krishna has called them ignorant.

In the path of charity, there is unity in the faith of the saints.

There is diversity in the opinion of the sages and the ignorant.

The enjoyers are desirous of opulence, only the ignorant.

The essence of the Vedas - Shastras, they tell only this.

The goal of life is only, to get immense pleasure and happiness.

There is no other than this, the essence of knowledge is not in the world.

Saints, who are pierces of the path of Paramartha and knower of the Self, have the same opinion that the veil of ignorance is removed by doing duty and action with selfless devotion to know the Atma-Tattva. Unless this cover is removed, this living entity can never attain true happiness.

Sakam Upasana - It means to perform the actions of worship etc. with the desire of result. Those who worship the deities for the attainment of desired things and for the fulfillment of worldly pleasures, have been called sakami in the Gita. Successful people interpret worship according to their intellect. Lord Shri Krishna ji has called the good people ignorant. Such ignorant people tell only the result rituals described in the Vedas as true knowledge or essence according to their intellect. They say that there should be immense pleasures of the body, there is no other in the world more knowledge than this.

The ignorant people consider this body to be everything and for it to collect the goods of all the happiness and pleasures, consider it to be the ultimate goal - accomplishment. Now the subject to be considered is that chanting, austerity, abstinence, yajna etc. did the means, made the body agitated, performed many types of fasts, donations, rules, religions; With only this desire that worldly pleasures are to be attained, then what is the benefit of doing those deeds, because even if worldly pleasures are attained as a result of these means, neither they can provide permanent happiness nor permanent happiness. can stay. When the visible world is a false illusion, why would its enjoyments be true and stable? That is why all the scriptures and Vedas have sung the glory of Nishkaam Bhakti while describing both Nishkaam Bhakti and Sakam Bhakti. Whoever did selfless devotion could attain eternal happiness. On the contrary, one who performed devotion with desire, as a result of that his wish was fulfilled, but the Supreme Being was deprived of realization of the soul.

Once Yudhishthira ji asked Muni Markandeya ji about purity, austerity and salvation, then the sage said Rajan! Bathing in holy pilgrimages, chanting the Veda mantras or the name of the Lord, and satsangs by good men are considered by learned men to be the best. Gentle men sanctify their souls only with water in the form of the words of saints and good men. Those who never commit sins by mind, speech, deed and intellect, they are really ascetics, not those who burn the body. Hey Rajan! Gyan or Nishkaam Karma Yoga alone leads to freedom from worldly ailments like little death and attainment of a good position. Just as a seed that does not germinate by putting a roasted seed in the ground is freed from the cycle of movement, similarly, when the fire of knowledge is kindled, the seed of action also perishes and gets freedom from movement.

Therefore, the saints give the same instruction to the Satpurush Jiva to achieve his goal that O soul! By following the words of the saints. Do not spend this golden opportunity of human birth only in the desires of physical pleasures, because sorrow is hidden in the veil of these pleasures. When the reflection of shining objects falls on still water, it becomes more attractive in reality than those objects, but with a gust of wind, the water shakes so that its entire splendor is lost, in the same way, for the attainment of desired things. The fruit of the worship performed appears to be more attractive like a reflection, but there is no stability or reality in it in the slightest degree. The goal of man is not to attain these permanent pleasures, but to attain salvation through self-realization.




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