इच्छाओं की पूर्ति में, हो जाते हैं चूर जो।
भक्ति की मंजिल से कोसों, हो जाते हैं दूर वो,
वेद वर्णित तीन गुणों से ऊपर उठकर देख तू।
दुवन्द्व रहित और निर्मल होकर, आत्म रूप को पेख तू।
ऐ अर्जुन ! इस बात का ध्यान रख की जो मनुष्य इच्छाओं की पूर्ति के लिये साधनों में संलग्न है, वे भक्ति भाव से कोसों दूर हैं। वेद में लिखित त्रयगुण -सत्, रज, तम से उपर उठ। जब तेरा हृदय द्वन्द्व से रिक्त होकर निर्मल हो जायेगा, तभी तुझे आत्म रूप के दर्शन होंगे।
इच्छाओं का ताना बाना ही ऐसा है कि यह न कभी समाप्त होता है और न होगा। एक की पूर्ति होने के पहले ही दूसरी इच्छा अपना सिर खडा कर लेती है। मकडी के जाल की भाँति जीव स्वयं ही कामनाओं के जाल को बुनता है और फिर स्वयं ही उसमें फँस कर अमूल्य मानुष जीवन को व्यर्थ कर लेता है। इस प्रकार सांसारिक कामनाएं ही जीवन व्यर्थ गँवाने का मूल कारण बनती हैं। सकल संसार तीन गुणों सत्, रज, तम से ही बना है। इन्हीं तीन गुणों में विचरने के कारण ही प्राणी जन्म मरण के बन्धन से विमुक्त नहीं हो पाता। इन तीनों गुणों तथा सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से उपर उठकर मन को पावन करने पर ही आत्मा के दर्शन होते हैं। आत्म साक्षात्कार की सब वेदों का सार है। (Atma Ka Darshan Hi Sab Vedon Ka Saar Hai).
कुएं जलाशय से प्रयोजन, केवल प्यास बुझाना है।
वेदों का भी सार ऐ अर्जुन, आत्मतत्व को पाना है।।
कर्म धर्म सब ही तुच्छ हैं, आत्मज्ञान को पा करके।
अन्तर तम को दूर कर तू, ज्ञान का दीप जला करके।।
कुएं, तालाब अथवा जलस्रोत पर जाने का तात्पर्य केवल यही होता है कि उससे पिपासा शान्त हो सके, क्योंकि प्यास बुझाने के लिये पानी की आवश्यकता है। पानी के पास पहुँच कर उसका सेवन करने से पिपासा शान्त हो जाती है। जलाशय आदि का प्रयोजन इतना ही है कि उससे प्यास बुझायी जा सके। इसी प्रकार सच्चे आनन्द और आध्यात्मिकता की प्राप्ति का साधन वेदों में आत्मज्ञान बतलाया गया है। जब आत्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो जीव कर्म करता हुआ भी स्वयं को अकर्त्ता समझता है। अतः ऐ अर्जुन! ज्ञान का दीपक जलाकर तू घट के अन्धकार को दूर कर तथा नित्य आत्मा के स्वरूप की पहचान कर।
करना त्याग पाप पुण्य का, ज्ञानी का यह विधान है।
भवबन्धन से छूटने का, योग यही महान है।।
कामना रहित और निर्भय होकर, बन्धनमुक्त हो जाते हैं।
समत्वबु़द्ध योग के द्वारा, परम पद वे पाते हैं।।
ऐ अर्जुन! पाप और पुण्य दोनों का ही तू त्याग कर दे अर्थात् अपने समस्त कर्म ईश्वर के समर्पित कर दे। भवसागर के कष्टों से त्राण पाने का यही एकमात्र उपाय है। अमुक कर्म के द्वारा पुण्यफल प्राप्त होगा या अमुक कर्म करने से पापों का भागी बनूँगा - जब जीव अपनी बुद्धि द्वारा यह सोचकर भ्रम में पड जाता है तो बुद्धि तर्क-वितर्क द्वारा उसको त्रिगुणी माया में उलझा देती है। तब उसका ज्ञान माया से आच्छादित हो जाने पर वह अन्धकार में ठोकरें खाने लगता है। इसके विपरीत जो ज्ञानी पुरूष समत्व बुद्धि योग से कर्मफल का त्याग कर देते हैं, वे निर्भय पद को पा लेते हैं।
सत्पुरूष कथन करते हैं कि ईश्वर ने माया के गुणों से ही शरीर का निर्माण किया है। शरीर को आत्मा और आत्मा को शरीर मान लेने पर ही अनेकता भासती है। इसका कारण केवल अज्ञानता ही है। आत्मा का वास्तविक रूप तो द्वैत की गन्ध से रहित तथा प्रकृति और प्राकृत जगत् से अतीत स्वयं में स्थित है। जिस प्रकार यज्ञ में अग्नि प्रज्जवलित की जाती है तो उपर नीचे दो लकडियां रख कर बीच में मन्थन काष्ठ रखते हैं, इसी प्रकार सद्गुरू तथा शिष्य के मध्य उपदेश मन्थन काष्ठ है। जब शिष्य सद्गुरू से विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है तो ज्ञानाग्नि के प्रज्जवलित होते ही त्रिगुणी माया दग्ध हो जाती है। इस प्रकार विशुद्ध आत्मा के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होता है।
स्वजनों से युद्ध करने पर पाप लगेगा - अर्जुन की बुद्धि ने यह तर्क उठाया। भगवान जानते थे कि आसुरी शक्तियों का विनाश करने से मानव पाप का भागी नहीं बनता, अपितु उसका यह कर्म पुण्य में शामिल है, इसीलिये उन्होंने उसे युद्ध के लिये प्रेरित किया। अर्जुन ने जब अपनी बुद्धि को श्री प्रभु के श्री चरणों में समर्पित कर दिया तो उनकी कृपा से उसे वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिससे पाप-पुण्य के विषय में उसके मन में जो भ्रान्ति थी वह पूर्णतः दूर हो गयी।
इसी प्रकार जब तक जीव अपनी बुद्धि व मन का समस्त बल समय के सन्त सत्पुरूषों के श्री चरण कमलों में समर्पित नही कर देता तब तक उसे यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, फलस्वरूप वह भ्रान्तियों के बन्धन में बँधा ही रहता है किन्तु जब वह सत्पुरूषों की पावन संगति ग्रहण कर उनके उपदेशानुसार अपना जीवन बना लेता है तो स्वतः ही पाप-पुण्य के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
मोह की दलदल से अर्जुन, छुटकारा जब पायेगा।
भ्रान्तियों का दिल से तेरे, तिमिर दूर हो जायेगा।।
हर तरफ से हट के दिल फिर, ध्यान स्थिर हो जायेगा।
सच्चिदानन्द स्वरूप में मिलकर, आत्मतत्व को पायेगा।।
ऐ अर्जुन! जब तक तू मोह रूपी दलदल में फंसा रहेगा, तब तक तू शरीर और शारीरिक सम्बन्धों की अनित्यता को नहीं समझ पायेगा। जब मोह की भ्रान्ति का आवरण हट जायेग, तब हृदय में ज्ञान का प्रकाश होने से तुझे वास्तविकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होगी। हर तरफ से तेरा दिल स्वतन्त्र व निर्मल हो जायेगा और तू आत्मा का साक्षात्कार करके परम पद को पा लेगा।
अभिप्राय यह कि भगवान ने अपने उपदेश द्वारा यह भलीभांति स्पष्ट कर दिया कि जब तक शरीर तथा शारीरिक भोगों में आसक्ति बनी रहती है, तब तक जीव अज्ञान के अंधकार में भटकता रहता है सर्व प्रकार की भ्रांतियों तथा आवागमन से त्राण पाने का एकमात्र सरल साधन है-निष्काम कर्मयोग और इसी से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
In the fulfillment of desires, those who become crushed.
Far from the destination of devotion, they get away,
Without conflict and being pure, look at the Self.
O Arjuna! Keep in mind that the person who is engaged in means for the fulfillment of desires, they are far away from devotion. Rise above the three gunas written in the Vedas - Sat, Raja, Tama. When your heart becomes free from conflict and becomes pure, then you will have the vision of the Self.
The fabric of desires is such that it never ends and will never happen. Before one is fulfilled, the other desire raises its head. Like a spider's web, the creature itself weaves the web of desires and then by getting trapped in it itself, the priceless human life is wasted. In this way, worldly desires become the root cause of wasting life in vain. The whole world is made up of three gunas Sat, Raja and Tama. It is because of wandering in these three gunas that a living being cannot be freed from the bondage of birth and death. After rising above these three qualities and the dualities of happiness and sorrow etc., the soul is seen only after purifying the mind. Self-realization is the essence of all the Vedas. (Atma Ka Darshan Hi Sab Vedon Ka Saar Hai).
The purpose of the well reservoir is only to quench the thirst.
The essence of the Vedas is to attain the Self, O Arjuna.
Karma-dharma is all trivial, having attained self-knowledge.
You remove the inner tamas, by lighting the lamp of knowledge.
The meaning of going to a well, pond or water source is only that the thirst can be pacified by it, because water is needed to quench the thirst. After reaching near the water and consuming it, the thirst gets pacified. The purpose of reservoir etc. is only so that thirst can be quenched by it. Similarly, the means of attainment of true bliss and spirituality is described in the Vedas as self-knowledge. When self-knowledge is attained, the soul, even while performing action, considers himself to be the doer. Therefore, O Arjuna! By lighting the lamp of knowledge, you remove the darkness of the ghat and identify the nature of the eternal soul.
To renounce sin, of virtue, is the law of the wise.
This is the great yoga of being freed from material bondage.
Without desire and fearless, one becomes free from bondage.
Through Samtvabuddha Yoga, they attain the supreme status.
O Arjuna! Give up both sin and virtue, that is, dedicate all your actions to God. This is the only way to get rid of the sufferings of the ocean. By doing such a karma, I will get virtuous results or I will become a partaker of sins by doing such a karma - When a living being is delusional by thinking of this by his intellect, then the intellect entangles him in the three-fold illusion by reasoning and reasoning. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . to Then when his knowledge is covered by Maya, he starts stumbling in the darkness. On the contrary, the wise men who renounce the result of action through equanimity, attain the position of fearlessness.
The sages say that God has created the body from the qualities of Maya. Diversity is felt only when the body is considered as the soul and the soul as the body. The reason for this is only ignorance. The true form of the soul is devoid of the smell of duality and is situated in the past from nature and the natural world. Just as a fire is lit in a yajna, two sticks are kept above and below and churning wood is kept in the middle, in the same way, the teaching between the master and the disciple is the churning wood. When the disciple receives pure knowledge from the Sadguru, the Triune Maya is ignited as soon as the fire of knowledge is ignited. In this way the real nature of the pure soul is realized.
Fighting with relatives would incur sin - Arjuna's intellect raised this argument. God knew that by destroying demonic powers, man does not become a partaker of sin, but this action of his is included in virtue, that is why he inspired him to fight. When Arjuna surrendered his intellect to the feet of Sri Prabhu, by his grace he attained real knowledge, which completely dispelled the confusion in his mind about sin and virtue.
In the same way, until the soul devotes all the strength of his intellect and mind to the lotus feet of the saints of the time, he does not attain true knowledge, as a result, he remains in the bondage of illusions, but when he does not follow the path of the saints. Taking holy company and making his life according to his teachings, then automatically he becomes free from the bondage of sin and virtue.
When Arjuna will get rid of the swamp of attachment.
The darkness of illusions will be removed from your heart.
Move your heart from all sides and then your meditation will become stable.
By uniting in the form of Sachchidananda, one will attain the Self.
O Arjuna! As long as you remain trapped in the quagmire of attachment, you will not be able to understand the impermanence of the body and physical relations. When the veil of the illusion of attachment is removed, then the reality will be clearly visible to you due to the light of knowledge in the heart. From all sides your heart will become free and pure and you will attain the supreme position by realizing the soul.
The meaning is that the Lord has made it very clear through his teaching that as long as attachment to the body and bodily pleasures remains, the soul keeps wandering in the darkness of ignorance is the only easy means to get rid of all kinds of misconceptions and movement. Selfless Karma Yoga and this is how self-knowledge is attained.
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