कोई तो तन मन दुखी, कोई चित्त उदास।
एक एक
दुःख सबन को, सुखी सन्त का दास।।
दुनिया में हर एक मनुष्य को सुख की इच्छा है हर शख्स सुख चाहता है। सबको यही फिकर है कि कहीं से सुख हासिल हो। इसी की तलाश में बेचारे दिन रात पडे घूमते हैं। हर एक इसी को प्राप्त करने के लिये यत्न कर रहा है और इसी की खातिर सबका पुरूषार्थ है। साधन भिन्न-भिन्न हैं, यत्न अलग-अलग हैं परन्तु उद्देश्य सबका यही है कि कहीं से सुख का सामान हाथ आये।
मगर यह बात हैरत से खाली नहीं कि इस कदर यत्न और पुरूषार्थ करने पर सुख फिर भी किसी को नसीब नहीं। हर शख्स दुखी ही नजर आता है। हर एक को कोई न कोई चिन्ता खा रही है। सुख एक के भाग्य में भी नहीं। जिसको देखो वही दुःखों की अग्नि में दिन रात ईंधन की तरह पडा जलता है। बच्चा, बूढा, अमीर और गरीब सब इसी रोग का शिकार हो रहे हैं। अगर भाग्य से किसी को कुछ सुख प्राप्त भी है तो वह भी दुःख से खाली नहीं।
इसी तरह दुनिया में जहाँ भी निगाह डालो कोई भी जगह दुःख से खाली दिखाई नहीं देती। एक शख्स का ख्याल है कि उसे धन मिल जाये तो वह सुखी हो जायेगा। उसके हासिल करने के लिये वह यत्न करता है। आखिर उसे धन मिल जाता है, मगर सुख फिर भी नहीं मिलता क्योंकि जिस ख्याल से रूपया कमाया था अब वह ख्याल ही नहीं, अब उसे यह चिन्ता है कि कहीं उसका कमाया हुआ धन चोर न लें जायें।
अपने और बेगाने सब दुश्मन नजर आने लगे कि कोई उसे धोखा देकर उससे रूपया न छीन ले। रातें जाग जागकर काटनी पड गई। रक्षा के लिये चौकीदार रखने पडे। घर में दौलत तो आई, मगर हजार फिकरों और अन्देशों को साथ लेकर। ख्याल तो यह था कि रूपया कमाकर सुख भोगेंगे, मगर उलटी जान मुसीबत में पड गई। इसी तरह जिधर भी निगाह फेरो सब जगह यही हाल नजर आयेगा।
जैसे एक शख्स को शादी की हवस है। वह यह समझ रहा है, बस स्त्री घर आ जाये फिर हर तरह का सुख है। आखिर स्त्री घर आ जाती है, मगर फिर भी वह सुखी नहीं होता क्योंकि अब उसे संतान की आवश्यकता है। सुख की इच्छा ने आगे पैर पसारना शुरू कर दिया। अब उसके सुख का निशाना पुत्र है। वह समझ रहा है कि पुत्र के मिल जाने पर सुख हासिल होगा परन्तु अब जरा सन्तान वालों की हालत पर भी दृष्टि डालिये, सुख उनको भी नसीब नहीं। वे किसी और ही चीज में सुख की तलाश कर रहे हैं और उसकी कोशिश में दिन रात पडे दुःखी होते हैं।
हमारे कहने का मतलब का यह हरगिज न समझ लेना चाहिये कि धन, पुत्र और स्त्री आदि का त्याग कर दिया जाये, बल्कि गरज यह है कि जिस सुख की इन्सान को तलाश है, वह सुख किसी और ही वस्तु में है, जिससे आदमी बेखबर है। अगर इन चीजों में सुख होता तों इनके हासिल हो जाने पर इन्सान जरूर सुखी हो जाता। मगर बावजूद दुनियावी ऐश व आराम के कुल सामान मिल जाने पर भी जब इन्सान दुःखी ही बना रहता है तो इसका मतलब यह है कि इन पदार्थों में सुख नहीं, बल्कि सुख वाली वस्तु कोई और है।
तारीख तुम्हें बतलायेगी,
दुनिया में खुशी का नाम नहीं।
जिस दिल पै हवस का
सिक्का है,
उस दिल के लिये आराम नहीं।।
इस तरह दुनिया में सब जगह दुःख ही दुःख है। यहां एक भी सुखी नहीं और सुखी भी क्योंकर हों, जब शुरू से ही गलत रास्ते पर चल रहे हैं। भला आज तक दुनिया के पदार्थों में भी किसी को सुख नसीब हुआ है ? या चित्त शान्ति हासिल हुई है ? हरगिज नहीं। क्योंकि जब दुनियावी चीजों की तासीर ही अशान्ति वाली है तो इनकी प्राप्ति में सुख और शान्ति कहां। संसार में हर एक चीज अपना अलग-अलग असर रखती है। कोई गरम है, कोई ठण्डी अथवा कोई समान है। सबकी तासीर अलग-अलग है। जिस चीज के अन्दर जो तासीर कुदरत ने भर दी है उसके अन्दर उस किसम का गुण रहना जरूरी है। सांसारिक चीजों की तासीर दुःख को पैदा करने वाली है इसलिये इनमें सुख की उम्मीद रखना केवल भ्रम है। वे लोग बडे विचारहीन हैं, जो सुख की खातिर दुनियावी सामान परमेश्वर से मांगते हैं। यहाँ ईश्वर की माया का खेल ही कुछ ऐसा है जिसमें सब जीव भ्रम में पडे हुए हैं और हर एक अपने से बडे को सुखी और आप को दुःखी समझ रहा है। एक कवि कहता है :
दीन कहे धनवान सुखी ,
धनवान कहे सुखी राजा हमारा।
राजा कहे महाराजा सुखी,
महाराजा कहे सुखी इन्द्र प्यारा।।
इन्द्र कहे ब्रह्मा जी सुखी,
ब्रह्मा कहें सुखी सिरजनहारा।
विष्णु कहें इक भक्त सुखी,
बाकी सब दुखिया है संसारा।।
इस संसार में केवल भक्त सुखी हैं। उनके बराबर कोई भी सुखी नहीं है। चाहे सांसारिक दृष्टि से उनके जाहिरी हालात इतने खुशगवार न भी हों परन्तु अंदर में उनको वह सुख हासिल होता है जिसकी बदौलत दुःख भी उनके लिये सुख बन जाते हैं। कबीर साहिब जी के वचन हैं कि :
तन धर सुखिया कोई न देखा,
जो देखा सो दुखिया हो।
उदय अस्त की बात कहत हैं,
सबका किया विवेका हो ।।1।।
घाटे बाढे सब जग दुखिया,
क्या गिरही वैरागी हो।
शुकदेव अचारज दुख के डर से,
गर्भ से माया त्यागी हो ।।2।।
जोगी दुखिया जंगम दुखिया,
तपसी को दुख दूना हो।
आसा तृष्णा सब को व्यापे,
कोई महल न सूना हो ।।3।।
सांच कहौ तो कोई न मानै,
झूठ कहा नहीं जाइ हो ।
ब्रह्मा बिस्नु महेसुर दुखिया,
जिन यह राह चलाई हो ।।4।।
अवधु दुखिया भूपति दुखिया,
रंक दुखी विपरीति हो।
कहैं कबीर सकल जग दुखिया,
सन्त सुखी मन जीति हो ।।5।।
इस संसार में सुखी सन्त हैं, जिन्होंने अपने मन पर काबू पा लिया है। वे हमेशा आनन्द स्वरूप हैं। उन्होंने दुःखदायक तृष्णा रूपी डायन को मार दिया है। वे चाहे जहाँ रहें और जिस हालत में रहें, सुखी हैं। घर में रहें तो सुखी हैं, जंगल में रहें तो आनन्द में हैं क्योंकि उन्होंने समझ लिया है कि दुःख क्या चीज है और सुख क्या वस्तु है। वह सदा परम आनन्द में मग्न हैं। उनकी निगाह में न कोई राजा है, न कोई रंक है। वे स्थिर चित्त होने के कारण सदा सुख के स्थान पर विराजमान हैं।
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