रूह जन्मती और मरती, मानते अन्जान ही।
जन्म और मृत्यु असल में, इसको न आती कभी।।
आत्मा की नित्यता का वर्णन करते हुये श्री भगवान कथन करते हैं-
रूह जन्मती और मरती, मानते अन्जान ही।
जन्म और मृत्यु असल में, इसको न आती कभी।।
अजर अमर नित्य है यह, जन्म बन्धन से परे।
मृत्यु इसे आती नहीं, मिटने से नश्वर देह के।।
वस्त्र पुराने त्याग कर, नये पहने नर बारम्बार।
आत्मा भी करती वैसे, छोड के पूर्व देह असार।।
ऐ अर्जुन! आत्मा का न जन्म होता है न मृत्यु। जो ऐसा मानता है कि रूह जन्मती-मरती है, वह अज्ञानी है। यह तो अजर, अमर और नित्य है। शरीर का नाश होने से आत्मा का नाश कदापि नहीं होता। आत्मा तो शरीर इस प्रकार बदलती है जिस प्रकार मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को बदलता है। उसे फटे-पुराने परिधान बदलने में तनिक भी खिन्नता नहीं होती। वह प्रसन्नता से नये परिधान धारण कर पुराने वस्त्रों को त्याग देता है।
सत्पुरूष कथन करते हैं कि आत्मा सत् की सत्ता रखती है तथा देह असत् की। जिस प्रकार प्रतिबिम्ब का कोई अस्तित्व नहीं होता, वह केवल मिथ्या आभास है, उसी प्रकार शरीर भी मिथ्या है। प्रतिबिम्ब को यदि कोई सत् समझकर उसके पीछे-पीछे भागा फिरे और उसे पकडने का प्रयत्न करे तो कब तक ऐसा करेगा? प्रतिबिम्ब तो न कभी किसी के हाथ आया है और न ही कभी आयेगा। व्यर्थ में उसके पीछे दौड धूप करके अन्त में पश्चात्ताप ही करना पडेगा।
इसी प्रकार आत्मा सुख-आनन्द तथा ज्योति का भंडार है और माया के दृश्यमान पदार्थ उसकी परछाई मात्र हैं। जीव उन पदार्थां को प्राप्त करने की लालसा से दिन-रात एक किये दौड-धूप करता है। ये आज तक न किसी के बने हैं और न ही बन सकते हैं। अज्ञानी जीव इन्हीं को सत् समझ कर जीवन का अमूल्य समय इन्हें हस्तगत करने के लिये समाप्त कर देता है और अन्तिम समय पश्चात्ताप करता हुआ इस लोक से प्रयाण कर जाता है।
यह आत्मा तो ऐसे है जैसे समुद्र से सूर्य ने वाष्पकण के रूप में पानी लिया तथा वह वर्षा की बूंदों के रूप में पृथ्वी पर आ गया। जो बूंद मिट्टी पर पडी उसने कीचड का रूप धारण कर लिया तथा जो बूंदें नदी में गिरीं वे नदी कहलाई। इस प्रकार जिस स्थान पर बूंद गिरी उसी का रूप कहलाई, परन्तु है वह शुद्ध जल का ही एक कण। उसका रूप चाहे परिवर्तित हो जाता है, परन्तु उसका नाश कभी नहीं होता।
The sun rises to rise again and rises only to set. The sun is never disturbed in rising. He is always resplendent, but it is best to rise and fall from the journey of the earth. Like this, new life is hidden behind death. Birth and death are just a false impression, the person who knows the self-element does not seem to have any difficulty in this. Although he attains the title of liberating life due to knowing self-realization and there is no work to be done for him, yet he continues to do duty in public interest. Therefore, to perform duty in this field of work is the ultimate religion of man.
Describing the continuity of the soul, Shri Bhagwan says-
Spirit is born and dies, considering it is unknown.
Birth and death, in fact, it never comes.
Ajar is immortal, it is beyond birth.
Death does not come from it, but from the disappearance of the mortal body.
Clothes old, worn-out male, recurring.
The soul also does, as it were, the body before leaving.
Hey Arjun! The soul is neither born nor death. One who believes that spirit is born ignorant is ignorant. This is Ajar, immortal and continual. The destruction of the soul is never destroyed by the destruction of the body. The soul changes the body in the same way that a man changes old clothes. He does not have any difficulty in changing torn and worn clothes. He happily renounces old clothes wearing new clothes.
Satpuras state that the soul has the power of the truth and the body of the immaterial. Just as the image has no existence, it is only false impression, similarly the body is also false. If someone considers the image to be true and runs after it and tries to catch it, how long will it do? The image has never come in anyone's hands, nor will it ever come. In vain, you will have to repent at the end by sunbathing after him.
Similarly, the soul is a repository of happiness, joy and light and the visible substance of Maya is just its shadow. The creature craves to obtain those substances, and performs the same race day and night. They are neither made nor can be made till date. The ignorant creature considers them to be true and ends the invaluable time of life to accept them and at the last time, repenting, goes away from this world.
This soul is like the sun took water from the sea in the form of vapor and it came to the earth in the form of raindrops. The drop which fell on the soil took the form of mud and the drops which fell in the river were called river. Thus the place where the drop fell is called its form, but it is only a particle of pure water. Although its form changes, it never perishes.
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