अर्जुन का भगवान् के श्री चरणों में सर्वस्व समर्पण
तब अर्जुन ने विनय की -प्रभो!
मोह ममता से हुआ है, मेरी बुद्धि का ह्रास।
कृपा करके ज्ञान का, भर दीजिये इसमें प्रकाश।।
शरणागत हूँ आपका, प्रभुवर रक्षा कीजिये।
अज्ञान तिमिर आवरण को, दूर प्रभो कर दीजिये।।
भगवन ! इस समय मुझे अपना-पराया, लाभ-हानि आदि कुछ भी समझ नहीं आ रहा। मेरी बुद्धि मोह-माया से आछन्न हो रही रही है। कृपया मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिसमें मेरा कल्याण निहित हो। मैं आपके शरणागत हूँ ।
अर्जुन ने शरणागति पथ को अपनाया तथा भगवान के श्री चरणो में सर्वस्व समर्पित कर विनय की - प्रभो! मेरी बुद्धि पर मोह ने ऐसा आवरण डाल दिया है कि मैं युद्ध-भूमि में खडे शत्रुओं को मारने में अपने को असमर्थ पा रहा हूँ।
फिर यह भी तो विदित नहीं कि युद्ध में वे विजयी होंगे या हम। मुझे तो इस विजय में यदि तीन लोक का राज्य भी प्राप्त हो जाये, तो भी ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे सुख कदापि उपलब्घ नहीं होगा, क्योंकि विजय से प्राप्त समस्त भोग-ऐश्वर्य रूधिरयुक्त होंगे। इससे उचित तो यही होगा कि भिक्षाटन कर अपना जीवन यापन करूं। अब आप ही बतलाइये, मुझे क्या करना उचित है?
God ! At this time, I do not understand anything other than mine, profit and loss etc. My intellect is getting covered with fascination. Please give me the knowledge in which my welfare is contained. I am your refuge
Arjuna followed the path of refuge and surrendered himself to the Lord's feet. The fascination has put such a covering on my intellect that I am unable to kill the enemies standing in the battlefield. Then it is also not known whether he or she will be victorious in the war. Even if I get the kingdom of three worlds in this victory, even then it seems that I will not have happiness at all, because all the pleasures of victory will be bloodshed. With this, it would be appropriate that I live my life by begging. Now tell me, what is the right thing for me to do?
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