समरस्थल पर कौरवों और पांडवों की सेनायें एक - दूसरे के सम्मुख आकर खड़ी हुई। अर्जुन ने भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी से, जो कि युद्ध में उसके सारथी थे, प्रार्थना की कि रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलिये ताकि मैं विपक्षी दल के योद्धाओं को भली प्रकार देख सकूं कि मुझे किस-किस के साथ युद्ध करना है? अर्जुन के ऐसा कहने पर श्री भगवान ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ला खडा किया। अर्जुन की दृष्टि ज्योंहि सामने खडे अपने सम्बन्धियों पर पडी, तो उन्हें देखते ही उसकी बुद्धि चकरा गई और मोह ने उसे अपने जाल में आडे हाथों ले लिया। वह किंकर्तव्यविमूढ होकर युद्ध न करने का विचार ठान बैठा। उसने शस्त्रों को त्याग घुटने टेक दिये। भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी ने उसकी ऐसी दयनीय दशा देखकर कथन किया-
आंखों में आंसू भरे जब, शोकाकुल अर्जुन हुआ।
पथ-प्रदर्शक बन के उसके,कृष्ण जी ने यूं कहा।।
आके युद्ध भूमि में अर्जुन, मोह में है क्यों फंसा।
धर्म-विचलित हो के क्यों,अपयश का भागी बन रहा।।
नहीं उचित हरगिज ऐ अर्जुन,कायरता तेरे लिये।
छोडकर दुर्बलता दिल की, वीरता से काम ले।।
अर्जुन शोक से व्याकुल था तथा उसकी आंखें अश्रुपूर्ण थीं। भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज जी ने कहा-ऐ अर्जुन! युद्ध के इस समय में तेरे मन में मोह अथवा अज्ञान कहां से आ गया, जिसका कि विवकेशील पुरूषों ने कभी आचरण नहीं किया? यह तो अधोगति में पहुंचाने वाला और दुष्कीर्तिकारक है। तू भयभीत क्यों हो रहा है? क्या तुझे अपना क्षात्र-धर्म भूल गया? यदि तू अपने धर्म से विचलित होगा अर्थात् युद्ध नहीं करेगा, तो तुझे अपमान सहन करना पडेगा। क्षत्रिय के लिये अपमान तो मृत्यु से भी कहीं बढकर है। इसलिये उठ! साहस से काम ले और युद्ध के लिये तैयार हो जा।
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